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________________ अभिमानी पछताते रहते २४६ -भरा हुआ घड़ा कभी छलकता नहीं, किन्तु आधा घड़ा अधिक आवाज करता है । विद्वान एवं कुलीन व्यक्ति अभिमान नहीं करता, किन्तु गुणहीन मूर्ख अधिक बकवास करते हैं । अभिमानी व्यक्तियों का स्वभाव अपने मुह मियामिट्ठू बनने का होता है । साहित्यकार शेक्सपियर के शब्दों में 'The empty vessel makes the greatest sound.' "खाली बर्तन सबसे अधिक आवाज करता है ।" - वास्तव में अभिमानी व्यक्ति करता कम है, कहता ज्यादा है । इसीलिए सेक्सपियर अभिमानी के स्वभाव का विश्लेषण करते हुए कहता है "We wound our modesty and make foulthe clearness of our deserving; when of ourselves we publish them. " 'जब हम अपनी नम्रता या अपनी योग्यताओं का स्वयं बखान करते हैं, तब हम अपनी नम्रता को घायल करते हैं और अपनी योग्यताओं की असंदिग्धताओं को अशुद्ध- अपवित्र कर देते हैं । अभिमानी का गर्वोद्धत विचार अभिमानी प्रायः ऐसा विचार किया करते हैं कि मेरे बिना दुनिया का कोई काम नहीं चलता । कई लोग अपने परिवार के मुखिया होने के नाते अभिमान करते हैं कि 'मेरे बिना परिवार का काम नहीं चलता, मैं न रहूँ, परिवार भूखा मर जायगा । परन्तु यह सब व्यर्थ कल्पना है, किसी के बिना किसी का काम रुकता नहीं । सभी को अपने-अपने भाग्य के अनुसार सब कुछ मिलता है । परन्तु अभिमानी व्यक्ति मान लेता है कि मैं ही इसके लिए सहारा हूँ । हरिदास नाम का एक बनिया था । उसके परिवार में वह, उसकी पत्नी और दो लड़के, यों चार प्राणी थे । हरिदास फेरी करके किराने का सामान वेचकर अपना गुजारा चलाता था । घर में कमाने वाला वह अकेला ही था, इसलिए उसके मन में यह अभिमान हो गया कि मेरे बिना परिवार का काम एक दिन भी नहीं चल सकता । इसलिए वह स्वयं कस कर मेहनत करता था और लोगों के सामने भी अपनी डींग हांकता था । एक दिन वह सन्त के सत्संग में पहुँचा । सन्त ने कहा - " दुनिया में किसी के बिना किसी का काम नहीं रुकता । यह अभिमान व्यर्थ है कि मेरे बिना परिवार या समाज का काम नहीं चल सकता ।" सत्संग पूर्ण होने के बाद जब सभी लोग चले गए तब हरिदास ने संत से कहा - " आपने यह कहा कि दुनिया में किसी का काम नहीं रुका रहता । परन्तु मुझे तो ऐसा लगता है कि मेरे परिवार का मेरे बिना एक दिन भी काम नहीं चल सकता । मैं स्वयं इस बात का साक्षी हूँ। मैं दिन भर में जब कमा कर पैसे लाता हूँ, तभी शाम को रोटी-पानी का Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004011
Book TitleAnand Pravachan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1979
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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