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________________ क्रोधीजन सुख नहीं पाते २३७ " व्यसन पूरा किये बिना हटता नहीं, उसका व्यसन पूरा ही होना चाहिए। डॉक्टरों का कहना है कि अधिक क्रोध करने से मस्तिष्क में रहे हुए ज्ञानतन्तु फट जाते हैं । आक्सफोर्ड यूनीवर्सिटी के स्वास्थ्य निरीक्षक डॉ. हेमनवर्ग ने अपनी रिपोर्ट में बताया है कि क्रोध के कारण इस वर्ष परीक्षा में अनुत्तीर्ण होने वाले छात्रों में अधिकांश चिड़चिड़े मिजाज के थे । पागलखाने की रिपोर्ट में बताया है कि क्रोध से उत्पन्न होने वाले मस्तिष्क रोगों ने अनेकों को पागल बना दिया। देखिए क्रोधी मानव शराब पीये हुए मनुष्य की तरह क्या-क्या करता है "रागं शोर्वपुषि कम्पमनेकरूपं, चित्ते विवेकरहितानि च चिन्तितानि । पुंसाममार्गगमनं समदुःखजातं, कोपं करोति सहसा मदिरामदश्च ॥" क्रोध करने वाले पुरुष की आँखें लाल हो जाती हैं, उसके शरीर में अनेक प्रकार का कम्पन होता है, चित्त में विवेकरहित चिन्तन करता रहता है, उन्मार्ग पर जाने लगता है, एक साथ क्रोधी पर अनेक दुःख आ पड़ते हैं। मदिरा पीकर उन्मत्त बने हुए की तरह क्रोधी भी उन्मत्त हो जाता है। वह भान ही भूल जाता है कि मैं क्या कर रहा हूँ। जॉन बेब्स्टर (John Webster) कहता है "There is not in nature a thing that makes a man so deformed so beastly, as doth intemperate anger." "प्रकृति की कोई वस्तु ऐसी नहीं है, जो मनुष्य को इतना विरूप, इतना पाशविक बना दे, जितना कि अनियन्त्रित क्रोध बना देता है।" क्रोधावेश में आकर मनुष्य अपनी बड़ी से बड़ी हानि कर बैठता है। पहाड़गंज दिल्ली के निकटवर्ती एक मोहल्ले में एक व्यक्ति को चिटफण्ड से १००) रुपये मिले । वह सौ रुपये का नोट लेकर घर आया। उसने नोट लाकर खाट पर रखा और कुछ काम में लग गया। इतने में उसका एक-दो वर्ष का बच्चा खेलता हआ वहाँ आ पहुँचा । उसने सौ रुपये के नोट को खिलौना समझकर उठा लिया और मुंह में लेकर फाड़ दिया, जैसा कि छोटे बच्चे किया करते हैं। सौ रुपये के नोट को फाड़ते ही उस मनुष्य ने क्रोध में आकर अपना विवेक खो दिया। तत्काल उसने भोले बच्चे को उठाकर जलते हुए तन्दूर में पटक दिया था, जिससे बच्चा तत्काल मर गया। हाय रे क्रोध ! तू कितना अनर्थकर है ! पड़ौसी लोगों ने उस व्यक्ति की बहुत भर्त्सना की और मरम्मत की। पुलिस उसे गिरफ्तार कर ले गयी। वास्तव में क्रोध महाभयंकर रोग है। ऐसी महाव्याधि से दूर रहना ही श्रेयस्कर है। जिन्हें क्रोध की बीमारी नहीं लगी है, उन्हें इससे दूर ही रहना चाहिए और Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004011
Book TitleAnand Pravachan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1979
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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