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________________ बान्धव वे, जो विपदा में साथी २२७ क्या सम्पन्न लोग अपनी सम्पत्ति परलोक में साथ ले जाएँगे? यदि नहीं तो, ऐसे निर्धन एवं बेरोजगार साधर्मी बन्धु को आफत में या संकट में देख कर क्या आप में साधर्मीबन्धुता नहीं जागती ? मारवाड़ के एक जैन धनिक का हैदरावाद स्टेट के एक शहर में व्यवसाय था। उनकी शुभकामना थी-राजस्थान के कुछ बेरोजगार जैन भाईयों को यहाँ लाकर उन्हें सहयोग दिया जाए। फलतः राजस्थान से जो भी बेरोजगार स्वधर्मी बन्धु आता, उसे उसकी रुचि के अनुसार कपड़ा, किराना, अनाज आदि की वे दूकान करा देते। अपनी ओर से वे उसको ५००-७०० की मदद कर देते। उससे कहतेदेखो, यह धन्धा करो। इसमें जो कुछ भी कमाई हो, उसका अमुक हिस्सा हमें दे देना बाकी सब तुम्हारा है। दो-तीन साल में जब उसकी दूकान जम जाती तो अपना हिस्सा और रुपये निकाल लेते, और उसे स्वतन्त्र रूप से अपना व्यवसाय करने देते। यों लगभग १५० परिवारों को उक्त सेठ ने बसाया, रोजगार धन्धे से उन्हें लगाया और अपनी स्वधर्मीबन्धुता सिद्ध की । किसी व्यक्ति में स्वजातिबन्धुता या किसी एक जाति के प्रति बन्धुता होती है। जैसे नीग्रोनेता मार्टिन लूथर किंग में नीग्रो जाति को सम्मानित और प्रतिष्ठित करने और उनके अधिकार दिलाने में अपने प्राणों की बाजी लगा दी। लोग उन्हें मारते-पीटते, गाली देते, पर वे अपने अहिंसा धर्म पर डटे रहकर खुशी-खुशी सहन करते। बंगाल के फरीदपुर के महाप्रभु जगबन्धु ने बूना और डोम जैसी अस्पृश्य और पददलित जातियों को गले लगाकर एक दिन में दुराचारी से सदाचारी बना दिये । वे विद्यार्थियों को सच्चरित्र बनने की शिक्षा देते थे । कुष्टरोगियों के बन्धु : मनोहर दिवाण कुष्टरोग एक भयानक रोग है। कोढ़ का रोग जब लग जाता है तो उसके घरवाले उसे घर से निकाल देते हैं, समाज में कोई भी उसे पास बैठने नहीं देता, उसकी छाया से भी घृणा करते हैं । किन्तु मनोहर कुन्दन दीवाण ने गाँधीजी से प्रेरणा पाकर वर्धा के पास दत्तपुर में एक कुष्ट-आश्रम खोला, जिसमें रहकर वें स्वयं कुष्टरोगियों की सेवा करने लगे। सचमुच ऐसे बन्धु संसार में मिलने कठिन हैं। असहाय महिलाओं के बन्धु-महर्षि कर्वे समाज में कई विधवाएँ अनाथ एवं असहाय, त्यक्त एवं अशक्त महिलाएँ हैं, जिनके पास आजीविका का कोई साधन नहीं होता। उन दुःखित-पीड़ित महिलाओं के आँसू पोंछना वास्तव में बहुत बड़ी बन्धुता का कार्य है। इस कार्य में वे ही हाथ डालते हैं, जिनमें समाज के द्वारा मिलने वाली गालियाँ, आलोचनाएँ सहने की हिम्मत हो। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004011
Book TitleAnand Pravachan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1979
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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