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________________ सत्त्ववान् होते दृढ़धर्मी २०६ चिन्तातुर राजा ने यह घोषणा कराई है कि जो पुरुष इस कन्या को सुआँखी ( सूझती ) कर देगा; उसे वह आधा राज्य और कन्या देगा | अनेक कला कुशल लोग आए, परन्तु अभी तक किसी को सफलता नहीं मिली । कल सबेरे तक अगर कन्या आँखों से देखने न लगी तो राजा, रानी और कन्या तीनों चिता में जल कर मर जाएँगे । अतः हमें प्रातःकाल वहाँ जाना है । साथ ही उस वृद्ध भारंड ने जन्मान्ध को भी दिखने लग जाए, इसका उपाय बताते हुए कहा - "देखो ! इस वट के स्कन्ध पर एक बेल लिपटी हुई है, उसका रस, हमारी विष्ठा के साथ मिलाकर अगर कोई अंधे की आँख में डाले तो उसकी आँखों में एकदम रोशनी आ जाती है, वह देखने लगता है" यह बात सुनकर राजकुमार पहले तो अपने पर अजमा लेने के विचार से सब पक्षियों के सो जाने पर धीरे से उठा और उसने टटोलता - टटोलता वट के स्कन्ध के पास पहुँच कर उस ठेल का रस भारंड पक्षी की बींट के साथ मिलाकर अपनी आँखों में डाला । यह डालते ही आँखों में एकदम रोशनी आ गई । कुमार हर्षित हुआ । धर्म पर उसकी आस्था और दृढ़ हो गई । अब वह एक डिबिया में वह बेल और भारंड की बीट दोनों लेकर चम्पा - नगरी पहुँचने के विचार से भारंड पंक्षी की पाँख में घुस गया। सुबह होते ही भारंड पक्षी उड़ा, उसने राजकुमार को तत्काल चम्पानगरी में पहुँचा दिया । स्नानादि से निवृत्त होकर कुमार नगर के मुख्य द्वार पर पहुँचा तो वहाँ राजा की घोषणा अंकित I थी । उसे पढ़कर द्वाररक्षक के साथ राजा के पास कहलाया कि "एक विद्यासिद्ध आया है, वह राजकुमारी को दिव्य नेत्र दे सकता है ।" राजा ने तुरन्त बुलाकर कुमार का बहुत स्वागत किया । तत्पश्चात राजा की प्रार्थना पर कुमार द्वारा उस दिव्यौषधि का रस राजकुमारी की आँखों में डालते ही उसके दिव्यनेत्र खुल गये । राजा ने प्रसन्न होकर राजकुमारी के साथ कुमार की शादी कर दी, उसे आधा राज्य भी सौंप दिया । इधर सज्जन के बहुत बुरे हाल थे । एक दिन गवाक्ष में बैठे हुए राजकुमार ने उसे फटेहाल लड़खड़ाते हुए आते देखा । उसके शरीर में जगह-जगह फोड़े फुन्सी हो रहे थे । आँखों से पानी झर रहा था, पेट पीठ से चिपक गया था । यह देख करुणाशील ललितांग ने उसे बुलाया, अपना परिचय देकर उसे नहला-धुलाकर नये कपड़े पहनाए और अपने पास सुखपूर्वक रहने को कहा "एक दिन सज्जन से कुमार ने ऐसे बुरे हाल होने का कारण पूछा तो उसने कहा— आपको अकेले छोड़कर मैं आगे बढ़ा ही था कि रास्ते में चोर मिले । उन्होंने मेरा सर्वस्व छीन लिया, मुझे मारपीट कर अधमरा कर दिया । मैंने पाप का फल पा लिया । अब मुझे छोड़ो ।" परन्तु कुमार ने दया करके उसे आश्वासन देकर रखा । एक दिन ललितांग की रानी ने उसे सज्जन की संगति करने से रोका । परन्तु ललितांग सरलभाव से उसकी संगति करता रहा । एक दिन राजा ने पापी सज्जन से पूछा – यह राजकुमार कौन है ? तुम्हारे Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004011
Book TitleAnand Pravachan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1979
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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