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________________ ८ आनन्द प्रवचन : भाग ८ तो नहीं है कि डीजल या पैट्रोल की तरह केवल अच्छा पौष्टिक स्वादिष्ट भोजन, सुन्दर पेय, बढ़िया कपड़े, गहने और भी न जाने क्या-क्या शृंगार प्रसाधन के साधन वगैरह पदार्थ वह अपने शरीर में डाले ही डाले जायें? या उस जीवनगाड़ी को तप, त्याग, इन्द्रिय संयम सेवा या परोपकार के कार्य करके बदले में थोड़ा-सा सात्त्विक आहार, पेय, वस्त्र आदि आवश्यक अनिवार्य वस्तु देकर चलाई जा सकती है। उसके पश्चात् यह देखना है कि वह जीवन रूपी गाड़ी को विधिपूर्वक चलाना जानता है या नहीं ? अगर इस बात के प्रति कोई व्यक्ति लापरवाह रहता है तो उसे लाभ के बदले हानि ही अधिक उठानी पड़ती है ! साथ ही यह जान लेना भी आवश्यक है कि यह जीवन क्यों और किसलिए मिला है ? इसका उपयोग किस प्रकार से किया जाये ? जैसे अनाड़ी आदमी के हाथ में मोटर दे दी जाये तो वह मोटर को भी हानि पहुँचायेगा, स्वयं को भी। इसी प्रकार अपना जीवन भी किसी अनाड़ी आदमी के हाथों में सौंप दिया जाए, कूगुरु को अपनी जीवन रूपी नैया सौंप दी जाए तो अधिकतर नुकसान उठाने की सम्भावना रहेगी। इसलिए एक कवि कहता है ? "जीवन का क्या अर्थ यहाँ है, क्यों कंचन-सा तन पाया है ? क्या तुम इसको समझ सके हो, क्यों नर भूतल पर आया है ?" मनुष्य जीवन पा लेना एक बात है, इसके उपयोग को समझना और बात है। जिस प्रयोजन के लिए जीवन मिला है, उसी प्रयोजन में इसे लगाना ही जीवन की वास्तविक परख है। इस तथ्य को समझना और जीवन जीने की सही प्रक्रिया को जानना अत्यन्त आवश्यक है। यह न जान सका तो उससे भारी हानि उठाने की आशंका रहेगी। किसी ने बिजली की अंगीठी खरीद ली, लेकिन वह उसका प्रयोग करना नहीं जानता, बताइए, ऐसे व्यक्ति को कितनी हानि उठानी पड़ेगी? वह अनाड़ी उसे अनाड़ीपन से काम में लाएगा तो दूध गर्म करने का लाभ उठाने के बजाय उसे प्राणों से हाथ धोने की आफत का सामना करना पड़ेगा। मनुष्य जीवन का भी ठीक प्रयोग करना नहीं आया तो, उसे लाभ के बदले हानि ही उठानी पड़ेगी। कवि ठीक ही कह रहा है कीमती जीवन क्षणों को क्यों लुटाए जा रहा है ? लाभ के बदले वृथा टोटा उठाए जा रहा है ? ढेर रत्नों का बिना आवास शठ के हाथ आया, फेंक दरिया में उसे आंसू बहाए जा रहा है। जमी है सरसन्ज अहा ! फुलवार इसमें खिल सकेगी। खेद फूलों की जगह कांटे बिछाए जा रहा है । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004011
Book TitleAnand Pravachan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1979
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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