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________________ जीवन की परख ५ अगन्धन कुल में जन्मे हुए जो सर्प होते हैं, वे वमन किये हुए विष को पुनः (खींचकर) कदापि ग्रहण करना नहीं चाहते; किन्तु हे अपयशकामी मुने ! तुम्हें धिक्कार है, कि तुम असंयम जीवन जीने के लिए वमन किये हुए काम-भोगों का पुनः आस्वादन करना चाहते हों। इससे तो तुम्हारा मरण अच्छा है। तुम्हें मालूम है कि मैं भोजराज के कुल की हूँ और तुम अंधक विष्णु के कुल के हो ! हम दोनों ही पवित्र उच्च कुल के हैं। क्या हम अपने कुल के पवित्र आचार-विचार को छोड़ देंगे? हम कुलमर्यादा छोड़कर उस गन्धन कुल के सर्प जैसे नहीं बनेंगे। मुनिवर ! अपने कुल का और उसके पवित्र उच्च आचार-विचार का स्मरण करो, और शान्त होकर पुनः अपने संयम में विचरण करो।" कितनी तीव्रता से सती राजीमती ने रथनेमि को पवित्र कुल की स्मृति दिलाई है ? परिणाम यह हुआ कि रथनेमि एकदम शान्त और संयम में स्थिर हो गए। कुल के संस्कार मनुष्य में कहाँ तक काम करते हैं, इसके लिए महाभारत को उठाकर देखिये। जब पाँचों पाण्डव वनवास भोग रहे थे, उस समय एकदिन द्रौपदी ने युधिष्ठिर से कहा-आपसे एक बात का समाधान चाहती हूँ, जब दुष्ट दुर्योधन को गन्धर्व ने कैद कर लिया था, तब आपने उसे छुड़ाने के लिए भीम और अर्जुन को क्यों भेजा था ?" इसके उत्तर में युधिष्ठर ने कहा- "देवि ! मैं जिस कुल में उत्पन्न हुआ हूँ, उसी कुल के मनुष्य को, जिस वन में रहता हूँ, उसी वन में मार डाला जाय, यह मैं कैसे देख सकता हूँ ? तुम पीछे आई हो, लेकिन कुल के संस्कार तो मुझमें पहले से ही विद्यमान हैं। हम और कौरव आपस में भले ही लड़लें, मगर हमारे कुल का भाई दूसरे के हाथ से मार खाय, और हम चुपचाप बैठे देखते रहें, यह नहीं हो सकता।" सच है, कुल के उत्तम संस्कारों का किया हुआ बीजारोपण मनुष्य को गलत कार्य करने से रोकता है, किन्तु अच्छे कार्य करने से रोकता नहीं बल्कि अधिकाधिक प्रोत्साहन देता है। कुल के उत्तम संस्कार पाया हुआ व्यक्ति विपत्ति आने पर भी कुलमर्यादा का त्याग नहीं करता। कदाचित कुल-धर्मपालन और बाह्य मर्यादा दोनों में विरोध हो तो वह कुल-धर्मपालन करके लाचारी से हुए बाह्य मर्यादा भंग का प्रायश्चित लेकर अपने धर्म में स्थिर रहता है । महाभारत का ही एक प्रसंग है । पाण्डवों के राज्य में एक बार कुछ चोर किसी की गौएँ चुरा कर ले जाने लगे। वह गृहस्थ अर्जुन के पास शिकायत लेकर आया कि "हमारी गायों की रक्षा कीजिए, चोर गायें चुरा कर ले जा रहे हैं।" द्रौपदी पाँचों भाइयों की पत्नी थी। उससे विवाह करते समय पाण्डवों ने यह नियम बना लिया था कि जिस भाई की बारी होगी, उस समय द्रौपदी के महल में दूसरा नहीं जा सकेगा। अगर भूलवश जाएगा तो उसे बारह वर्ष का वनवास का दण्ड Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004011
Book TitleAnand Pravachan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1979
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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