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________________ सज्जनों का सिद्धान्तनिष्ठ जीवन १५५ स्वरक्षा को गौण करके पररक्षा को ही अपनाता है। धर्म के उच्चतत्त्वों या अहिंसा; सत्य आदि अंगों पर वह कठिन से कठिन समय में भी दृढ़ रहता है। धर्मनिष्ठा कहें या सिद्धान्तनिष्ठा उसके रग-रग में, तथा उसके संस्कारों में दृढ़ता से रम जाती है। ऐसे धर्मनिष्ट या सिद्धान्त निष्ठ श्रावकों-सज्जनों के लिए शास्त्र में कहा गया है'आलिमिज पेमाणुरागरत्ते'-''उसकी हड्डियाँ और रगों-नसों धर्म प्रेम या धर्मानुराग (सिद्धान्तुराग) से रंगी हुई थी। ऐसे व्रतबद्ध धर्मनिष्ठ सज्जन श्रावक को कोई भी भय या प्रलोभन अपने जीवन के रवीकृत सिद्धान्तों से जरा भी विचलित नहीं कर सकता। सिद्धान्तनिष्ठ सत्यं को छोड़कर शिवं सुन्दरं को नहीं अपनाता 'सत्यं शिवं सुन्दरं' इस त्रिपुटी में सत्य की रक्षा के लिए शिवं एवं सुन्दर को छोड़ देगा, तथा सत्यं और शिवं दोनों की रक्षा के लिए सुन्दरं को छोड़ देगा, मतलब यह है कि जहाँ कष्टों से अपने आपको बचाने से हजारों को कष्ट पहुँचता हो, वहाँ वह अपने स्वार्थ के सुन्दरं की उपेक्षा करके हजारों को बचाने के लिए 'शिवं' की रक्षा करेगा । परन्तु जहाँ असत्य बोलने से दूसरों का कल्याण रूप 'शिवं' होता हो, वहाँ वह 'शिवं' को गौण करके 'सत्यं' की रक्षा करेगा, असत्य हर्गिज नहीं बोलेगा। ___ महात्मा गाँधीजी से एक जैन सन्त ने बम्बई में पूछा-"महात्माजी ! यदि असत्य बोलने से स्वराज्य मिलता हो तो आपको लेने में क्या हर्ज है ? धर्मराज युधिष्ठिर ने भी न्याय को जिताने के लिए असत्य बोला था !" उन्होंने उत्तर दियाधर्मराज युधिष्ठिर ने क्या किया और क्यों व कैसी परिस्थिति में असत्य बोला, इसकी चर्चा में मैं नहीं पड़ता वे महान् थे। मैं तो असत्य बोलकर कदापि स्वराज्य लेने के पक्ष में नहीं हूँ। सत्य मेरा जीवन सर्वस्व है।" यह थी गांधीजी की सत्य (सिद्धान्त) निष्ठा ! वे सत्यं (सिद्धान्त) को छोड़कर स्वराज्य रूपी शिवं को अपनाने को जरा भी तैयार न हुए। धर्मरुचि अनगार को नागश्री ब्राह्मणी ने भिक्षा में कड़वे तुम्बे का साग दे दिया, जो विषमय था । उनके गुरुदेव ने जब उन्हें वह साग एकान्त निरवद्य स्थान में डाल देने को कहा तो निरवद्य स्थान में जब उन्होंने साग की एक बूंद डालकर देखी तो मालूम हुआ कि वहाँ हजारों चींटियाँ आ गईं। उन्होंने सोचा-“अगर मैं इस साग को इस निरवद्य जमीन पर डालकर एक मात्र अपने जीवन की रक्षारूप सुन्दरम् को अपनाऊँगा तो हजारों जीवों की रक्षारूप सत्यं नहीं रह सकेगा। यानी मेरा एक जीव तो बच जाएगा, परन्तु सारे साग को जमीन पर डालने से हजारों चींटियाँ मर जाएँगी । अतः यही जीवन की स्थूल रक्षा (सुन्दरं) का विकल्प छोड़कर हजारों जीवों की रक्षा (सत्यं) का विकल्प अपनाऊँ।" अतः उन्होंने वह कड़वे तुम्बे का साग जमीन पर न डालकर अपने पेट में डाल दिया। अर्थात् सुन्दरं को छोड़कर Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004011
Book TitleAnand Pravachan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1979
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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