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________________ पण्डित रहते विरोध से दूर ११६ " वत्स ! पिता के हृदय से गुरु (पण्डित) का कर्तव्य महान् होता है ।" इतना सा संक्षिप्त उत्तर देकर शास्त्रीजी घर की ओर चल दिये । पुत्र का अनुराग पं० गंगाधरशास्त्री के अध्यापन - कर्तव्य में बाधक न बन सका । सच्चे पण्डित के जीवन में एक विशेषता होती है कि उसे चाहे विरोधियोंसमाज-विरोधी आचरण वालों के बीच भी छोड़ दिया जाए या रहना पड़े तो भी वे शान्ति, धैर्य, सहिष्णुता और सद्भावना से विरोधियों के दिल को जीत लेते हैं, उनका हृदय परिवर्तन कर देते हैं, विरोधी आचरणवालों को सामाजिक जीवन से अविरोधी आचरण वाला बना देते हैं । रहीम कवि ने कितनी सुन्दर बात कह दी है— जो रहीम उत्तम प्रकृति का करि सके कुसंग । चंदन विष व्यापत नहीं, लपटे रहत भुजंग ॥" भावार्थ स्पष्ट है । पण्डित रविशंकर महाराज महात्मा गाँधी के लोकसेवक बने, उससे पहले गुजरात की अपराधी पाटणवाणिया जाति के पुरोहित थे । रविशंकर महाराज के इन महमानों का मुख्य पेशा चोरी करना था । जो पाटणवाणिया जितना अधिक चोरी कर लेता था, वह अपनी जाति में उतना ही अधिक आदर - पात्र माना जाता था । जो पाटणवाणिया एक सप्ताह तक चोरी करने नहीं जाता था, उसकी स्त्री उससे रुठ जाती थी, और उसे निठल्ला, निकम्मा और डरपोक कह कर तिरस्कृत करती थी । लेकिन प० रविशंकर महाराज ने इन और ऐसी ही अपराधी जातियों के बीच निर्लेपता से रहकर आत्मीयता के सम्बन्ध स्थापित किये और अपने अन्तःकरण की पवित्र प्रेमभरी वाणी से उनके जुआ, चोरी, नशा और आलस आदि दुर्गुण छुड़ाए | उनके समझाने से कई लोग प्रतिज्ञा कर लेते और उसे आजीवन निभाते । उन्होंने कई भयंकर आतंकवादी डाकुओं से मिलकर और उनके बीच निर्लिप्त रहकर उन्हें इतनी आत्मीयता से समझाया कि कितने ही डाकुओं ने डकैती छोड़ दी और समाजपयोगी कार्य करने लगे । इस प्रकार पण्डित विरोधियों के बीच भी अवरोधी रहते हैं, बल्कि विरोधियों का वे विरोधी जीवन भी बदल देते हैं । विरोध कहाँ-कहाँ और कैसे-कैसे ? पण्डित का मुख्य लक्षण जो विरोध से विरत रहना बताया गया है, अतः यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि विरोध कहाँ-कहाँ और किस-किस रूप में आता है ? विरोध के स्रोत कौन-कौन से हैं ? जिन्हें जानकर पण्डित जीवन जीने का अभिलाषी मानव उन विरोधों से विरत रह सके । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004011
Book TitleAnand Pravachan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1979
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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