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________________ पण्डित रहते विरोध से दूर ११७ हर्ष-शोक, विषाद, चिन्ता, उद्विग्नता आदि द्वन्द्वों-स्वभाव-विरुद्ध बातों से सदैव दूर रहता है । चिन्ता और भय तो उसे सताते हैं, जिसमें अपने और अपनों के प्रति आसक्ति हो और दूसरों के प्रति घृणा अथवा अपने स्वार्थ में अनुरक्त हो और परमार्थ से विरक्त । जब पण्डित लोग अपने स्वार्थ में तल्लीन हो जाते हैं, दूसरे की सुखसुविधाओं या लाभों का बिलकुल ध्यान नहीं रखते, तभी दुःख, विपत्ति, कष्ट और भय उपस्थित होते हैं। स्वार्थपरता के कारण उन पण्डितों की बुद्धि बिलकुल मोहावृत एवं पक्षपात युक्त हो जाती है। परन्तु जो सच्चे पण्डित होते हैं, अर्थविभाग या बंटवारा करते समय भी उनके मन में पक्षपात या स्वार्थभाव नहीं आता, यही कारण है कि वैरविरोध या मनमुटाव उनके यहां नहीं फटकते। नवद्वीप (नदिया) के प्रसिद्ध विद्वान् रामशिरोमणि और उनका छोटा भाई रघमणि विद्यारत्न साथ-साथ रहते थे। वे जितने विद्वान थे, उतने समझदार और संप से रहने वाले थे। उन्होने बहुत धन कमाया, फिर भी सम्पत्ति का बंटवारा नहीं किया। एक दिन रामशिरोमणि ने रघुमणि से कहा- "भाई ! अब हम सम्पत्ति का बंटवारा कर लें तो अच्छा है।" रघुमणि बोले- 'क्या कहा आपने ? जो मूर्ख होते हैं, वे अलग होते हैं, हम पण्डित होकर क्या अलग होंगे ? अलग होते हैं, वे स्वयं विरोध के विष से युक्त हो जाते हैं और अपनी संतान में भी विरोध का विष बीज बो जाते हैं । "लोग हमें क्या कहेंगे ? रामशिरोमणि बोले-"हमें अलग नहीं होना है, परन्तु लड़कों को सम्पत्ति बाँट दें तो अच्छा है, अन्यथा भविष्य में हमारी तरह एकता और अविरोधी प्रेम से रह सकें, ऐसी सम्भावना कम है।” रघुमणि ने कहा'दादा ! जैसी आपकी इच्छा !' रामशिरोमणि ने सारी सम्पत्ति के दो हिस्से किये। एक में अपने तीन पुत्रों का हिस्सा और दूसरे में अपने छोटे भाई के एक पुत्र का हिस्सा । यह बंटवारा देखकर रघुमणि ने कहा- "भाई ! यह आपने क्या किया ? अगर हम अलग हुए होते तो दो हिस्से करने ठीक थे। परन्तु अलग तो पुत्र हो रहे हैं। इसलिए चारों पुत्रों के चार हिस्से कर दीजिए। इसी में मेरा मन प्रसन्न रहेगा । परन्तु पण्डित शिरोमणि नहीं माने । उन्होंने दोनों भाईयों के दो हिस्से ही किये। मगर रघुमणि ने अपने पुत्र के हिस्से में से दो हिस्से और करके समविभाग कर दिया। वास्तव में जो पण्डित होते हैं, वे संकीर्ण स्वार्थबुद्धि नहीं होते । वे उन चार मूढपण्डितों की तरह अतिस्वार्थी नहीं होते, जिन्होंने अपनी बारी पर गाय को दूह लिया, मगर उसे चारा दाना नहीं खिलाया । पण्डितों की बुद्धि की विशेषता बताते हुए कहा है ना प्राप्यमभिवाञ्छति नष्टं नेच्छंति शोचितुम् । ___ आपत्स्वपि न मुह्यन्ति नराः पण्डितबुद्धयः॥ पण्डितबुद्धि वाले मनुष्य अप्राप्तव्य को, जो वस्तु प्राप्त नहीं हो सकती उमें प्राप्त Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004011
Book TitleAnand Pravachan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1979
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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