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________________ पण्डित रहते विरोध से दूर ११५ की परख यही है कि मानवीय भूलों को वह उदारतापूर्वक क्षमा करता रहता है, जिससे सम्बन्धों में कटुता नहीं, बल्कि मधुरता बनी रहती है, और बारबार गलतियाँ करने वाले के प्रति पण्डित की क्षमा उसे सही रास्ते पर ला देती है। इसका अर्थ यह नहीं है कि जो गलती करता जाता है, उसे पण्डित समझाता ही नहीं, वह समझाता है, आवश्यकता पड़ने पर मधुर उपालम्भ भी देता है, प्रेमभरी धमकी भी देता है, किन्तु देता है उपयुक्त अवसर पर ही। वह जब-तब बारबार उलाहने, शब्दों की मार, नुक्ताचीनी, तानाकशी या व्यंग कसना आदि बातें प्रतिशोध या घृणा से प्रेरित होकर नहीं करता, क्योंकि ये दोष शरीर को कमजोर, स्वभाव को चिड़चिड़ा, मस्तिष्क को खोखला और आत्मा को अपवित्र बनाते हैं । उपयुक्त समय पर कही हुई कड़वी बात भी मीठी लगती है। प्रातःकाल सूर्य की किरणें मुलायम और मधुर लगती हैं, आरोग्यवर्धक होती हैं, वे ही दोपहर में प्रचण्ड हो उठती हैं और लोगों को बीमार तक कर देती हैं। यह समझकर पण्डित पुरुष आवेशपूर्ण स्थिति को टाल देता है। फिर जब उग्रता का वातावरण समाप्त हो जाता है, या एकान्त में प्रिय व्यक्ति से मिलता है, तब वह उसको अपनी बात नम्रतापूर्वक समझाता है। समझाने में अगर परिहास या कटुता नहीं होती हैं तो पण्डित की कही हुई बात को समर्थन और सफलता मिलती है । पण्डित की सारी बुद्धिमत्ता और विचारशीलता परिस्थितियों, समस्या और झगड़ों को शान्तिपूर्वक सुलझाने में है। कलह और कटुता तो समस्याओं को और उलझाकर उन्हें बिगाड़ देती हैं। क्षमा, मधुरता, नम्रता, सहनशीलता आदि पण्डित के गुण ऐसे हैं जो विरोधों को शान्त कर सकते हैं। पण्डित का सारा व्यक्तित्व ही एक तरह से जीवन का कठोर परीक्षण है। जो जितना विचारशील और बुद्धिमान है, उसे उतना ही उदार और क्षमाशील होना चाहिए। क्षमाशील एवं उदार व्यक्ति के लिए संसार में कौन शत्रु है । इसीलिए पण्डितजन के ८ गुण बताए हैं, जो विरोध विरति से सम्बन्धित हैं दम्भं नोद्वहते न निन्दति परान्, नो भाषते निष्ठुरम् । प्रोक्त केनचिदप्रियञ्च सहते क्रोधञ्च नालम्बते ॥ ज्ञात्वा शास्त्रमपि प्रभूतमनिशं सन्तिष्ठते मूकवत् । दोषांश्छादयते गुणांन् वितुनते चाष्टौ गुणाः पंडिते ॥ अर्थात् --पण्डित में ८ गुण होते हैं । जैसे कि(१) जो दम्भ दिखावा नहीं करता। (२) जो दूसरों की निन्दा नहीं करता । (३) कठोर नहीं बोलता। (४) किसी के द्वारा कथित अप्रिय वचन सहता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004011
Book TitleAnand Pravachan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1979
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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