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कोहाभिभूया न सुहं लहंति, माणंसिणो सोयपरा हवंति। . मायाविणो हुंति परस्स पेसा, लुद्धा महिच्छा नरयं उविति ॥ ३ ॥
क्रोधी कभी नहीं सुख पाता, मानी रहता शोक - निमग्न । कपटी होते दास जगत के, लुब्ध महेच्छुक नरक - निमग्न ॥ ३ ॥
कोहो विसं किं ? अमयं अहिंसा, माणो अरी कि ? हियमप्पमाओ ।
माया भयं कि ? ॥४॥
विष क्या? क्रोध, अमिय ? अहिंसा, शत्रु कौन है ? मान । मित्र हितैषी, अप्रमाद है, माया भय की खान ॥४॥
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