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आनन्द प्रवचन : भाग ८
फलाहार करके उसने वह दिन वहीं बिताया। रात को उसने भी अपने पास जो ५ रत्न थे उन्हें यक्ष को चढ़ाकर खूब भक्तिपूर्वक पूजा की । यक्ष तुष्ट होकर जिनचन्द्र के वे ५ रत्न सौंपता हुआ बोला - " वत्स ! मैं तेरी भक्ति से बहुत प्रसन्न हूँ । ये चारों कन्याएँ मैं तुम्हें देता हूँ। वरदान माँग !" जिनचन्द्र यक्ष को प्रणाम करके बोला"मैं इतना ही वरदान आपसे चाहता हूँ कि जब मैं किसी कार्यवश आपको स्मरण करू ँ तब आप आकर मुझे सहायता करना ।" यक्ष ने वचन दिया और जिनचन्द्र को उठाकर उसने राजमहल में पहुँचाया। वहाँ चारों कुमारियाँ जिनचन्द्र को देखकर अत्यन्त प्रसन्न हुईं । यक्ष ने चारों कन्याओं के साथ जिनचन्द्र का पाणिग्रहण कराया और वहाँ से चला गया ।
प्रातःकाल होते ही चारों कन्याओं के पिताओं ने अपनी पुत्रियों के विवाहित होने का रंग ढांग देखा तो विस्मित होकर पूछा । कन्याओं ने सारा वृत्तान्त कह सुनाया । सभी अत्यन्त प्रसन्न हुए और जिनचन्द्र का हाथी, घोड़े आदि देकर सत्कार किया । जिनचन्द्र ने अपनी प्रत्येक पत्नी को एक-एक रत्न दिया और एक रत्न अपने हार में जड़वा कर पहन लिया ।
कुछ दिनों बाद जिनचन्द्र राजा आदि से आज्ञा लेकर अपनी पत्नियों सहित वहाँ से विदा हुआ । एक जहाज पर चढ़कर वह अपने देश की ओर आ रहा था । दुर्भाग्य से रास्ते में ही जहाज टूट गया । जिनचन्द्र समुद्र में कूद पड़ा, उसके पीछे उसकी चारों स्त्रियाँ भी कूदीं । धर्म के प्रताप से अचानक वहाँ एक जलहस्ती आया उसने इन पाँचों को अपनी पीठ पर बिठा कर रत्नद्वीप पहुँचा दिया । वहाँ एक मुनिराज के दर्शन हुए । जिनचन्द्र ने रत्नद्वीप के जौहरी बाजार में जाकर अच्छे-अच्छे पाँच हजार रत्न खरीदे । किसी वणिक् को किराया देकर जिनचन्द्र अपनी पत्नियों सहित उसके जहाज में बैठा । परन्तु चालाक और लोभी बनिये ने रत्न तथा स्त्रियों के लोभ में आकर जिनचन्द्र को रात्रि में ही समुद्र में धकेल दिया। सुबह जब चारों स्त्रियों ने अपने पति को नहीं देखा, तो अत्यन्त शोकमग्न हो गईं । कामी और लोभी afra ने उन स्त्रियों को कामभोग के लिए बहुत प्रार्थना की लेकिन वे अपने धर्म से जरा भी विचलित न हुई । क्रोधातुर वणिक् ने चन्द्रपुर आकर चन्द्रादित्य राजा को वे चारों स्त्रियाँ भेंट कर दीं । राजा ने उन्हें अपने अन्तःपुर में एक जगह निवास के लिए दे दी ।
तख्ता मिल गया, उसके सहारे
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इधर जिनचन्द्र को समुद्र में लकड़ी का एक तैर कर वह तीसरे दिन चन्द्रद्वीप के किनारे पहुँचा निकटवर्ती वन में एक योगी को जिनचन्द्र ने मंत्र सिद्ध करने में सहायता की, उसने प्रसन्न होकर जिनचन्द्र को रूपपरावर्तिनी गुटिका तथा अदृश्यकरण अंजन की दो गोलियाँ दी । जिनचन्द्र वहाँ से आगे बढ़ा रास्ते में उसने अपने इष्ट यक्षदेव का स्मरण किया । यक्ष के आते ही जिनचन्द्र के कहे अनुसार उसने उसकी स्त्रियों से मिलाने के लिए के बाहर
चन्द्रपुर
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