SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 103
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ धर्म-नियन्त्रित अर्थ और काम ८९ थे कि दूसरे दल के सौ डाकू और मिले और उन्होंने इन ५० डाकुओं को पकड़ लिया। पकड़े हुए डाकुओं ने उस ब्राह्मण से अपनी तरह धन प्राप्त करने को कहा। परन्तु धन बरसाने का मंत्रयोग निकल चुका था अतः वह सफल न हुआ, इससे क्रुद्ध डाक ओं ने उसे मार डाला। ५० डाकुओं का सफाया करके उनका धन छीन लिया। आगे चलकर प्रचुर धन के लोभवश उन डाकुओं में दलबंदी हुई। युद्ध छिड़ा जिसमें दो को छोड़ शेष ९८ डाकू मारे गये। धन समेट कर उन्होंने झाड़ी में छिपा दिया। खाने पीने की तजबीज में एक डाकू चावल बनाने लगा। दूसरा शौच आदि से निवृत्त होने गया लोभवश उसने चावल में जहर मिला दिया। शौच जाकर आते ही दूसरे ने उस पर तलवार से प्रहार किया। वह मर गया। क्रूर डाकू ने जब जहरीले चावल खाये तो वह भी थोड़ी देर में मर गया। इस पर तथागत ने अपने प्रवचन में अपने शिष्यों से कहा-अनुचित रीति से धन कमाने और अनुपयुक्त मार्ग से उन्नति की बात सोचने वाले व्यक्ति लाभ नहीं, हानि ही उठाते हैं। अपने साथ औरों को भी ले डूबते हैं।" इसी प्रकार कामान्ध व्यक्ति भी धर्म-मर्यादा को नहीं देखता, वह भी येनकेन प्रकारेण अपनी कामवासना को तृप्त करना ही अपना लक्ष्य समझता है। परन्तु उससे कितनी हानि होती है ? यह वह नहीं सोचता। क्षणिक कामसुख अनेक घोर दुःखों को बुला लेता है। कुणाल था तो सम्राट अशोक का ही पुत्र-अपने पति की ही सन्तान; परन्तु सौतिया माता तिष्यरक्षिता ने कुणाल को अपने कामजाल में फंसाने का प्रयत्न किया। कुणाल ने कहा-'माँ ! पुत्र के प्रति ऐसी अनुचित भावना?" बस, नागिन की तरह फुफकार उठी वह, बदला लेने की ठान बैठी। कुणाल को विद्रोह शान्त करने के लिए महारानी के कहने से सम्राट ने तक्षशिला भेज दिया। विद्रोह शान्त हो जाने पर अस्वस्थ सम्राट की राजमुद्रा लगाकर उनकी कृपापात्र कुटिल तिष्यरक्षिता ने तक्षशिला के अमात्य के नाम पत्र में लिखा-'कुमारः अन्धीयताम्' । अन्धीयताम् के आदेश अनुसार कुणाल की आँखें फोड़ डाली गई। बाद में जब सम्राट को पता चला तो उन्होंने रानी को कठोर दण्ड सुनाया। परन्तु कुणाल के कहासुनी करने से माफ कर दिया मगर तिष्यरक्षिता सम्राट अशोक के मन में घृणापात्र हो गई। यह है धर्मरहित काम का दुष्परिणाम ! इसने असंख्य नरनारियों का जीवन बर्बाद कर दिया। इसलिए यह निर्विवाद है कि धर्म-मर्यादारहित अर्थ और काम से कभी सुखशान्ति नहीं मिल सकती। धर्म के बिना अर्थ और काम एक अंक के बिना शून्य की तरह हैं । उनका कोई पारमार्थिक मूल्य नहीं है। परन्तु अफसोस तो यह है कि वर्तमानयुग का मानव धर्म पर निष्ठा खोता जा रहा है, या तो उसकी निष्ठा अर्थ पर है या सांसारिक विषय-सुखोपभोग पर। एक पाश्चात्य लेखक Cecil (सिसिल) ने इस पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त की है Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004011
Book TitleAnand Pravachan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1979
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy