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________________ ८६ आनन्द प्रवचन : भाग ८ था, तब मेरा परिवार सादगी से रहता था, सुख से जीता था, पुत्र भी आज्ञाकारी था, पत्नी भी मेरी सेवा करती थी । हम सब प्रेम से रहते थे । पता नहीं, यह लड़ाई का धन ही ऐसा आ गया है कि अब धन से सम्पन्न होने के बाद कोई किसी की नहीं मानता । सब अपना-अपना अलग राग अलापते हैं । पुत्र अपनी मस्ती में रहता है, पुत्री का राग भी अलग है और मेरी पत्नी की भी तर्ज बदल गई है । सब अपनीअपनी इच्छा के अनुसार करते हैं। मैं दिन भर का थकामांदा शाम को घर आता हूँ, तो पत्नी सिनेमा देखने पहुँच चुकी होती है या सैरसपाटे के लिए निकल गई होती है, पुत्र किसी और कार्यक्रम में व्यस्त होता है । मुझे तो रसोइया जैसा जो थाली में परोस देता है, वही झटपट खा-पीकर घर से भागने को जी होता है । मानो घर मुझे काट खाने दौड़ रहा हो ! क्या करू, इतना पैसा होते हुए भी मुझे सुख-शान्ति नहीं है ।" उनकी बात पूरी होते ही मैंने कहा - " शास्त्र में श्रावकों के लिए नीतिन्याय और धर्मपूर्वक ही अर्थोपार्जन करने का निर्देश है, जहाँ पैसा अनीति, अन्याय या अधर्म से आता है, वहाँ वह अशान्ति और व्यथा उत्पन्न किये बिना नहीं रहता । अनीति-अधर्म के पैसे से मनुष्य थोड़ी देर के लिए मन को मना लेता है कि मैं सुखी बन जाऊंगा, पर वह तो सुख की मृगतृष्णा है । वास्तविक सुख शान्ति से वह कोसों दूर हो जाता है ।" अतः धर्म मर्यादा से रहित अर्थ जीवन में सुख-शान्ति नहीं दे सकता । इसी प्रकार बिना ही मतलब के पैसे इट्ठका कर लेने मात्र से भी सुख नहीं मिलता; क्योंकि उस पैसे की रक्षा करने में दु:ख, फिर उसका नाश हो जाय तो भी दुःख होता है, वह पैसा खर्च करने में भी दुःख और कमाने में भी दुःख होता है । यों धर्मरहित धन के पीछे कई दुःख लगे हुए हैं । मानव जीवन का लक्ष्य अक्षय सुख-शान्ति प्राप्त करना है । उसके जीवन के सारे उपक्रम और कार्यक्रम इसी अक्षय सुख को प्राप्त करने का प्रयास है । सुख-शान्ति की स्थिति में ही मनुष्य आत्मविकास, आध्यात्मिक उन्नति, मस्तिष्कीय सन्तुलन, आत्मप्रसन्नता, मानसिक स्थिरता आदि प्राप्त कर सकता है । इसलिए सुख-शान्ति की प्राप्ति की आकांक्षा तो उचित है, परन्तु जो व्यक्ति मानसिक संघर्ष में फँसा है, मोहमाया से संत्रस्त है, कामनाओं और वासनाओं के बन्धन में ग्रस्त है, वह लोकोत्तर तो क्या, लौकिक उन्नति भी नहीं कर सकता। संसार में कितना ही क्यों न भटका जाए, कितनी ही विषयवासनाओं का भोगविलास क्यों न किया जाए, कितने ही तथाकथित सुख-साधन क्यों न एकत्रित कर लिये जाएँ, किन्तु मनुष्य तब तक अक्षय सुख-शान्ति को नहीं प्राप्त कर सकता, जब तक कि उसकी दृष्टि धर्मलक्षी न हो । एक ही उपाय है, धर्म के नियंत्रण में अर्थ - काम की आवृति । इसीलिए व्यासजी ने सारे संसार को यही संदेश दिया Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004011
Book TitleAnand Pravachan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1979
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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