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________________ अश्रद्धा परमं पापं, श्रद्धा पाप-प्रमोचिनी ७१ तत्त्वं चिन्तय सततं चित्ते, परिहर चिन्तां नश्वरविते । क्षणमिह सज्जनसंगतिरेका, भवति भवार्णव तरणे नौका ॥ भव्य पुरुष कहते हैं- "रे मन ! तू सदा तत्त्वों का चिन्तन कर; चंचल धन की चिन्ता छोड़ । यह संसार अल्पकालीन है और इसमें सज्जनों की संगति ही भवसागर से पार उतारने वाली नौका के सदृश है।" श्लोक से स्पष्ट है कि प्रत्येक साधु और साधक को सदा सम्यक्श्रद्धायुक्त ज्ञानी पुरुषों की संगति करनी चाहिए तथा मिथ्यात्वी एवं अश्रद्धालु पुरुषों की संगति को कुपथ्य के समान मानकर उससे परहेज करना चाहिए, अर्थात् उससे बचना चाहिए। क्योंकि कुसंगति से उत्तम पुरुष भी निकृष्ट बन जाता है एवं श्रद्धालु साधक मिथ्यात्वी में परिवर्तित हो सकता है । कुसंगति का परिणाम बताते हुए संत तुकारामजी कहते हैं "दुधाचिया अंगी मीठाचा शितोड़ा, नाशतो रोकडा केला असे, कस्तुरीचे पोते हिंगाने नासले, मोल ते तुले अर्धक्षणे ।" ___ अर्थात्-सेर भर दूध में अगर दो टुकड़े नमक के डाल दिये जाँय तो वे पूरे दूध का सत्यानाश कर देंगे और कस्तूरी के पोते (बोरी) के पास हींग रखदी जाय तो कस्तूरी की खुशबू नष्ट हो जाएगी। ये बातें गलत नहीं हैं । आप किराने के व्यापारियों से जानकारी कर सकते हैं कि जो कुछ मैंने कहा है, वह यथार्थ है। उन व्यापारियों के मुंह से तो आप यह भी जान सकते हैं कि नारियल के थैले के पास अगर चावल का थैला रख दिया जाय तो सारे नारियल खराब हो जाएँगे। भले ही नारियल के ऊपर छाल होती है और उसके नीचे का हिस्सा भी इतना कड़ा होता है कि उसे बिना पत्थर पर पटके या पत्थर से फोड़े-टूटता नहीं। ठीक यही हाल साधक का होता है। भले ही वह वर्षों तक साधना करके अपने मन और इन्द्रियों को अत्यधिक मजबूत बनाले तथा तपस्या के द्वारा शरीर को कठोर भी कर ले, किन्तु अगर कुछ समय दुर्जनों, नास्तिकों एवं भोगाभिलाषियों की संगति में रह जाये तो बहुत संभव है कि वह अपने साधना-मार्ग से च्युत हो जाएगा । इतिहास उठाने पर हमें अनेक उदाहरण ऐसे मिलते हैं कि बड़े-बड़े ऋषि, महात्मा और संत भी कुसंग के कारण अपनी वर्षों की साधना Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004010
Book TitleAnand Pravachan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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