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________________ ६६ आनन्द प्रवचन : सातवाँ भाग बन्धुओ, आप प्रतिक्रमण करते समय दर्शन के विषय में एक गाथा बोला करते हैं । मैं नहीं कह सकता कि कितने व्यक्ति उसका उच्चारण भी स्पष्ट न करते तोता - रटन्त के समान उसे कह जाते हैं, और कितने व्यक्ति उसके अर्थ को भली-भाँति समझकर उससे जीवन में लाभ उठाते हैं ? आज मैं वही गाथा आपके सामने रख रहा हूँ । जो इस प्रकार है परमत्थ- संथवो वा सुदिट्ठ परमत्थ- सेवणा वावि । वावन्न कुदंसण - वज्जणा य सम्मत्त सदृहणा ॥ इस आर्या छंद में श्रद्धा को मजबूत बनाने वाली दो प्रकार की औषधियाँ बताई गई हैं और उनका पूरी तरह असर हो सके इसके लिए दो प्रकार के परहेज भी कहे गये हैं । यद्यपि आत्मा कभी मरती नहीं है किन्तु व्यावहारिक दृष्टि से शरीर प्राप्त करने को जन्म और उस शरीर के नष्ट हो जाने को हम मृत्यु कहते हैं । तो आत्मा के साथ कर्मों के कारण लगे हुए इस जन्म-मरण के रोग को हटाने के लिए भगवान ने जो दो प्रकार की औषधियाँ बताई हैं उनमें से पहली है'परमार्थ का परिचय करना ।' 'तत्त्वार्थ सूत्र' में कहा गया है 'तत्त्वार्थ श्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् ।' अर्थात् — जीव, अजीव, पुण्य, पाप आदि नौ तत्त्वों पर यथार्थ श्रद्धा, प्रतीति एवं रुचि रखना सम्यक् दर्शन कहलाता है । तो परमार्थ का परिचय करना, इन नौ तत्त्वों की पूर्णतया जानकारी करना होता है । जो आत्मार्थी इन्हें जानने में रुचि न रखे वह जीव - अजीव के, पापपुण्यके, आश्रव एवं संवर के तथा बन्ध और मोक्ष के अन्तर को कैसे जान सकता है ? और फिर यह निश्चय भी कैसे कर सकता है कि मुझे किनसे बचना है और किन्हें ग्रहण करना है ? क्योंकि इन्हीं तत्त्वों में ऐसे तत्त्व भी हैं जो आत्मा को कुगतियों में ले जाते हुए संसार - परिभ्रमण कराते रहते हैं, और ऐसे तत्त्व भी हैं जो आत्मा को कर्म बन्धनों से मुक्त करके अक्षय सुख एवं आनन्द की प्राप्ति कराते हैं यानी जन्म-मरण की भयंकर बीमारी से सदा के लिए छुटकारा दिला देते हैं । इसीलिए गाथा में नौ तत्त्वों की जानकरी को प्रथम औषधि बताया गया है । Jain Education International अब आती है दूसरी औषधि । वह है - 'परमार्थ के ज्ञाताओं की संगति करना ।' अनेक व्यक्ति जो बुद्धि की मन्दता के कारण तत्त्वों की जानकारी For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004010
Book TitleAnand Pravachan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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