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आनन्द प्रवचन : सातवाँ भाग ..
चारों ओर से मेरी प्रशंसा होती है तथा आप मुझे इनाम और मेंट के तौर पर बहुत धन प्रदान करते हैं । दूसरे शब्दों में मेरे संगीत में यश-प्राप्ति, सराहना एवं अर्थ-उपार्जन की आशा का विष घुला रहता है।"
अकबर अपने प्रिय संगीतकार तानसेन की स्पष्ट उक्ति को सुनकर चकित रह गया, पर उसकी समझ में आ गया कि किसी भी क्रिया का सच्चा फल तभी हासिल होता है जबकि वह केवल अपने आनन्द एवं सन्तोष के लिए की जाती है तथा उसका उद्देश्य फल की आकांक्षा से रहित, पवित्र एवं दृढ़ संकल्प-युक्त होता है।
बन्धुओ, आपकी समझ में भी इस उदाहरण का अर्थ आ गया होगा। वह यही है कि हमारी शुभ क्रियाएँ एवं त्याग-तपस्या भी तभी सच्चा फल एवं सिद्धियाँ प्राप्त करा सकती हैं जबकि हम उनके फल की आकांक्षा, दिखावे की भावना तथा यश-प्राप्ति की कामना का त्याग कर दें तथा उन्हें पूर्ण आत्मविश्वास एवं दृढ़ श्रद्धापूर्वक सम्पन्न करते चले जायें। साथ ही मार्ग में आने वाली किसी भी बाधा से या किसी भी प्रकार के परिषह से विचलित होकर उन्हें निरर्थक न मानने लग जायें। अगर ऐसा हुआ तो हमारी वही स्थिति होगी
न खुदा ही मिला न विसाले-सनम ।
न इधर के रहे न उधर के रहे ।। इस शेर के अनुसार वह कहावत भी चरितार्थ होती है-'दुविधा में दोनों गए, माया मिली न राम ।' |
वस्तुतः जो साधक अपनी साधना के फल में सन्देह करने लगता है तथा उसके लिए मन ही मन पश्चात्ताप करता रहता है, वह न तो अपनी साधना के मधुर फल को पा सकता है और न ही लोकापवाद, निन्दा एवं तिरस्कार के भय से सांसारिक सुखों का उपभोग कर पाता है। दूसरे शब्दों में उसका यह लोक तो बिगड़ता ही है, साथ ही परलोक भी नष्ट हो जाता है।
ये सब अश्रद्धा के ही विषम परिणाम होते हैं। श्रद्धा के अभाव में साधक का मन प्रतिपल पारे के समान अस्थिर और चंचल बना रहता है । कभी वह एक मार्ग की ओर झुकता है तथा कभी दूसरी ओर। इसके फलस्वरूप न तो वह अपने विचारों में ही स्थिरता ला पाता है और न क्रियाओं में ही । इसीलिए अश्रद्धा को घोर पाप बताते हुए कहा गया है-- - अश्रद्धा परमं पापं, श्रद्धा पाप-प्रमोचिनी । . जहाति पापं श्रद्धावान्, सर्पोजीर्णमिव त्वचम् ॥ .::...
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