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अश्रद्धा परमं पापं श्रद्धा पाप प्रमोचिनी
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सन्त आज भी ऐसे हैं जोकि न तो धर्म पर सन्देह करते हैं और न ही अपनी साधना में शिथिलता लाते हुए मन, वचन एवं कर्म से दृढ़तापूर्वक संवर के मार्ग पर बढ़ते चले जाते
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व्यवहार सूत्र में इसी विषय को लेकर कहा गया है
चारि पुरिसजाया
रूवेणामं एगे जहइ णो धम्मं । धम्मेणामं एंगे जहर णो रुवं । एगे रूवे वि जहइ धम्मं वि । एगे जो रूवं जहइ णो धम्मं ।
पुरुष चार प्रकार के होते हैं
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(१) कुछ व्यक्ति वेश छोड़ देते हैं, किन्तु धर्म नहीं छोड़ते । (२) कुछ धर्म छोड़ देते हैं, किन्तु वेश नहीं छोड़ते ।
(३) कुछ वेश भी छोड़ देते हैं और धर्म भी ।
(४) कुछ ऐसे भी होते हैं जो न वेश छोड़ते हैं और न धर्म ।
इन चार प्रकार के व्यक्तियों में से जघन्य कोटि के व्यक्ति वे होते हैं जो वेश और धर्म दोनों छोड़ देते हैं या वेश न छोड़ने पर भी धर्म छोड़ देते हैं । धर्म छोड़ देने पर वेश का होना न होना बराबर है, बल्कि वेश का रखना अन्य भोले लोगों के लिए और भी खराब है । भोले व्यक्ति वेशधारी अधर्मात्मा पुरुषों की बातों में आकर गुमराह हो सकते हैं और कुमार्गगामी बन सकते हैं । -
मध्यम पुरुष वे हैं जो वेश छोड़ने पर भी कम से कम धर्म को नहीं छोड़ते । यद्यपि ऐसे व्यक्ति भी सराहनीय नहीं हैं क्योंकि वेश एवं धार्मिक उपकरण भी धर्म के सहायक होते हैं तथा मन को दृढ़ और मजबूत बनाते हैं । धार्मिक व्यक्ति अगर सामायिक के उपकरण लेकर धर्म-स्थान की ओर जाता है या वह साधु के वेश में होता है तो उसका मन अधिक पवित्र एवं उच्च भावनाओं से भरा रहता है तथा अन्य व्यक्तियों पर भी उसका सुन्दर प्रभाव पड़ता है ।
जिस प्रकार सैनिक अपने अनुरूप वेश में और अस्त्र-शस्त्र से सुसज्जित होकर लड़ाई के मैदान में जाए तो उसका मन अपने आप में अधिक साहस और दृढ़ता का अनुभव करता है । और इसके विपरीत अगर दूल्हे के वेश में साफ़ा और कलंगी लगाकर मैदान की ओर चले तो न तो वह स्वयं अपने मन को सन्तुलित रख सकता है और न ही देखने वाले उसे सैनिक समझकर उसकी सराहना कर सकते हैं । तो योद्धा का वेश उसके अनुरूप होना चाहिए और दूल्हे का वेश उसके अनुरूप ।
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