SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 67
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५४ आनन्द प्रवचन : सातवां भाग उस वृद्धा के ऐसा कहने पर उसके साथ की एक और बहिन बोली"महाराज ! मेरा लड़का भी आयम्बिल की लड़ी करते समय मरा इसलिए फिर मैंने आयम्बिल करना छोड़ दिया।" । उन बहनों की बात सुनकर मुझे उनकी अज्ञानावस्था पर बड़ा दुःख हुआ पर मैंने पूछा-"क्या एकादशी और आयम्बिल छोड़ देने से तुम्हारे पुत्र वापिस आ गये ?" "महाराज ! मरे हुए भला वापिस कैसे आते ?" यह सुनकर मैंने उन्हें समझाया-“बहनो ! जब एक चीज चली गयी और वह वापिस नहीं आ सकती तो फिर हाथ में रही हुई दूसरी चीज को क्यों फेंक रही हो? तुम्हारे लड़के पाप कर्मों के उदय से गये, पर अब व्रतों में सन्देह और अविश्वास करते हुए उनका त्याग करके नये कर्मों का बन्धन किसलिए कर रही हो?" कहने का सारांश यही है कि अज्ञानावस्था के कारण अनेक स्त्री-पुरुष धर्म को गलत समझ बैठते हैं या उसका तुरन्त ही शुभ फल न मिलने पर धर्माचरण को व्यर्थ मानकर त्याग देते हैं । वे भूल जाते हैं कि हमें जो दुःख प्राप्त हो रहे हैं वे हमारे पूर्व-संचित अशुभ कर्मों का फल भी तो हो सकता है। मोहनीय कर्मों के उदय में रहने पर तो स्वयं गौतम स्वामी को भी केवलज्ञान हासिल नहीं हुआ था, जबकि उनके पश्चात् दीक्षित होने वाले संत केवलज्ञानी बन चुके थे। उस स्थिति में गौतम स्वामी ने क्या साधना और संयम का त्याग कर दिया था ? क्या उन्होंने यह समझा था कि मेरा अब तक का धर्माचरण निरर्थक था ? नहीं, भगवान ने उन्हें यही बताया था कि केवलज्ञान प्राप्त न होने का कारण तुम्हारे पूर्व कर्म हैं और भगवान की वही वाणी आज भी साधु के लिए है कि अपने तप, उपधान एवं व्रतों के अनुष्ठानों का विशिष्ट फल प्राप्त न होने पर खेद मत करो और उन्हें निरर्थक मानकर मन को विषय-विकारों की ओर मत झुकने दो। ऐसा करने पर ही आत्म-कल्याण संभव होगा। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004010
Book TitleAnand Pravachan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy