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धर्माचरण निरर्थक नहीं जाता
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आप जानते हैं कि हलवाई जब पकवान बनाता है और उसके लिए शक्कर की चासनी तैयार करता है तो उसे कितनी सतर्कता रखनी पड़ती है ? चासनी अगर तनिक भी पतली हो या तनिक भी कड़क हो तो पकवान ठीक नहीं बनता। इसी प्रकार विद्यार्थी परिश्रम करता है और परीक्षा में कुछ नम्बर भी पा लेता है, किन्तु दो-चार नम्बरों की भी अगर कमी रह जाय तो वह पास नहीं होता, फेल हो जाता है।
तो जिस प्रकार परीक्षार्थी को उत्तीर्ण होने के लिए पूरे नम्बर चाहिए, उसी प्रकार विशिष्ट ज्ञान की प्राप्ति के लिए भी आत्मा की कर्मों से पूर्णतः मुक्ति होनी चाहिए । पर अगर ऐसा नहीं हो पाता, यानी छात्र दो-चार नम्बरों की कमी से परीक्षा में उत्तीर्ण नहीं हो पाता तो क्या उसे निराश होकर अपने परिश्रम को व्यर्थ मानना चाहिए ? नहीं, उसे यही विचार करके मन में साहस रखना चाहिए कि मैं शत-प्रतिशत अंक प्राप्त करके पास होता पर ऐसा न होने पर भी नब्बे प्रतिशत अंक मुझे मिले हैं, और मेरी इतनी योग्यता तो बढ़ ही गयी है। थोड़ी और मेहनत करूंगा तो अगली बार दस प्रतिशत की कमी भी पूरी करके पास हो जाऊँगा।
ठीक ऐसे ही विचार साधक के भी होने चाहिए। उसे बड़ी गंभीरतापूर्वक चिन्तन करना चाहिए कि- "मैंने यथाशक्ति तप किया, आयंबिलादि उपधानों का अनुष्ठान किया तथा अपने व्रतों का पालन भी कर रहा हूँ पर अगर मुझे विशिष्ट ज्ञान की प्राप्ति नहीं हुई है तो इसका कारण पूर्व कर्मों का शेष होना है । पर इससे क्या हुआ ? मैं जो कुछ भी कर सका हूँ, इससे मेरे कुछ अशुभ कर्मों की निर्जरा तो हुई ही होगी और शेष कर्मों की निर्जरा करने के लिए मुझे प्रयत्नशील रहना है। अगर मैं दृढ़तापूर्वक आश्रव से बचता हुआ संवर के मार्ग पर बढ़गा तो इस जन्म में न सही, अगले जन्मों में तो मैं अपनी आत्मा को कर्मों से सर्वथा मुक्त करने में समर्थ बनूंगा।" ___ बन्धुओ, ऐसे विचार और ऐसा दृढ़ संकल्प जिस साधक का होगा वही संवर के मार्ग पर बढ़ता हुआ आत्मा को निरंतर शुद्ध बना सकेगा तथा अपने मन, वचन एवं शरीर को इस कार्य में सहायक बनाएगा। ऐसा साधक कभी भी अपनी साधना या तपस्या को निरर्थक न मानकर बड़े धैर्यपूर्वक सम्पूर्ण परिषहों पर विजय प्राप्त हुआ कर्मों का कर्ज अदा करेगा तथा उनके उदय को अकाट्य समझकर पूर्ण समभावपूर्वक उनके क्षय की प्रतीक्षा करेगा। वह सदा अपने मन पर नियन्त्रण रखेगा तथा उसे कभी विचलित न होने देता हुआ बोध देता रहेगा।
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