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________________ धर्माचरण निरर्थक नहीं जाता ४७ किया, साधु की बारह प्रतिमाओं को भी ग्रहण किया तथा साधु के उपयुक्त ग्रामानुग्राम अप्रतिबद्ध होकर विचरण किया, किन्तु मेरा 'छउमं' अर्थात् छद्मस्थ भाव दूर नहीं हुआ अतः यह सब निरर्थक गया । वस्तुतः अगर साधु यह विचार करता है कि- "उपवास, आयम्बिल एवं द्वादशभेदी तप करके भी मुझे इनसे किसी विशिष्ट ज्ञान की प्राप्ति अथवा सिद्धि हासिल नहीं हुई तो यह सब करना व्यर्थ है और शास्त्रों का यह कथन कि घोर तपश्चर्या से अतिशय बढ़ता है और नाना सिद्धियाँ हासिल होती हैं, असत्य है ।" तो उसकी यह धारणा 'अज्ञान परिषह' के कारण ही बनती है। क्योंकि किसी भी प्रकार की लौकिक या अलौकिक सिद्धियाँ हासिल होना या विशिष्ट ज्ञान की प्राप्ति होना पूर्व कर्मों के क्षयोपशम पर निर्भर होता है। जब तक कृतकर्मों का क्षय नहीं होता, तब तक कोई भी विशेष ज्ञान या केवल ज्ञान कैसे हासिल हो सकता है ? इसलिए साधक को अपने अज्ञभाव के दूर न होने पर यही विचार करना उचित है कि-"अभी मेरे बद्ध कर्मों का विपाक नहीं हुआ है।" उसे स्वप्न में भी अपने तपादि अनुष्ठानों के लिए खेद करना और उन्हें निरर्थक समझना उचित नहीं है। अगर वह ऐसा करेगा तो पूर्व कर्मों का क्षय तो दूर, नवीन कर्मों का संचय हो जाएगा। किन्तु अगर वह पूर्ण शांति एवं समत्व के साथ अपनी मुनि-चर्या पर दृढ़ रहे और अज्ञान परिषह पर विजय प्राप्त करने की कोशिश करे तो निश्चय ही उसके कर्मों की निर्जरा होती रहेगी और अज्ञान नष्ट होकर ज्ञान के लिए अपना स्थान रिक्त कर देगा। यानी एक दिन ज्ञान का प्रकाश होगा और अज्ञानांधकार का लोप । किन्तु इसके लिए मन, वचन और शरीर को बड़ा सतर्क और सावधान रखने की आवश्यकता है। मन का संभालना बड़ा कठिन है और विरले व्यक्ति ही इस पर काबू पाते हैं। समर्थ रामदास स्वामी ने मन को समझाने के लिए बहुत से श्लोक लिखे हैं । मराठी भाषा में उनकी पुस्तक का नाम है-'मनाचे श्लोक ।' यहाँ मैं संस्कृत का एक श्लोक आपके सामने रखता हूँ समस्तःसुख : संयुतः कोस्ति लोके, __ मनःसद् विचारैः शनै निश्चिनु त्वम् । मनोयत्त्वया संचितम् पूर्वकर्म, तदेवेह भोग्यम् शुभं वाऽशुभं वा ॥ इस श्लोक में मन को संबोधित करते हुए कहा है -'अरे मन ! इस लोक में सम्पूर्ण सुखों से युक्त कौन होता है ? कोई नहीं, अतः तू मन में सद्विचार Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004010
Book TitleAnand Pravachan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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