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आनन्द प्रवचन : सातवाँ भाग
बन्धुओ, प्रसंगवश मैंने आत्मा के कुछ सद्गुण जिन्हें सच्चा धन या आत्मधन कहा जा सकता है, उनके विषय में आपको बताया है । वह इसलिए कि इन गुणों को अपना लेने वाला मुमुक्षु संवर के मार्ग पर बढ़ सकता है और निश्चय ही आत्म-कल्याण करने में समर्थ बनता है ।
वैसे हमारा मूल विषय अज्ञान-परिषह को लेकर चल रहा है। यहाँ आपको कुछ शंका यह भी हो सकती है कि कुछ समय पहले ही मैंने आपको ‘पन्नापरिषह' यानी प्रज्ञा परिषह के विषय में बताया था और अब 'अज्ञानपरिषह' के विषय में बता रहा हूँ। तो प्रज्ञा और अज्ञान में क्या अन्तर है ? यह आपके लिए विचारणीय हो सकता है । अतः मैं इसी अन्तर को आपके समक्ष कुछ स्पष्ट करना चाहता हूँ। प्रज्ञा का अभाव ___ प्रज्ञा का अर्थ है बुद्धि ! बुद्धि की मन्दता या तीव्रता व्यक्तियों में होती है और हम सहज ही इनके उदाहरण कुछ व्यक्तियों में प्राप्त कर सकते हैं। पर बुद्धि की मन्दता होना या बुद्धि का न होना इतना हानिकारक नहीं है जितना हानिकारक अज्ञान का होना है । बुद्धि की मन्दता होने पर भी आत्म-कल्याण का अभिलाषी व्यक्ति संत-महात्माओं के द्वारा सुनाए गये वीतराग के वचनों पर विश्वास करता हुआ अनेक सद्गुणों को हृदय में धारण करता हुआ अपने आचरण को शुद्ध, निष्पाप और त्याग तथा तप युक्त बना सकता है। दूसरे शब्दों में वह सच्चे उपदेशकों के द्वारा बताये हुए सन्मार्ग पर चलने का प्रयत्न करता हुआ भी मानव-जीवन को सफल बना सकता है अर्थात् मनुष्य-भक्ति के उद्देश्य को हासिल कर लेता है । प्रज्ञा का अभाव हानिकारक तभी होता है जबकि साधक उसके लिए घोर दुःख करे तथा शोकमग्न होकर आत-ध्यान करता हुआ नवीन कर्मों का बन्धन करे । पर अगर ऐसा न करके वह प्रज्ञा के अभाव को पूर्वकर्मों का उदय मानकर समभाव रहने और अन्य आत्मिक सद्गुणों की सहायता से अपने आचरण को उन्नत बनाये तो प्रज्ञा के अभाव में भी वह कर्मों की निर्जरा करता चला जाता है और संवर के मार्ग पर बढ़ता हुआ एक दिन अपने उच्चतम उद्देश्य को प्राप्त कर लेता है। अज्ञानावस्था
_ अभी मैंने आपको बताया है कि प्रज्ञा या बुद्धि की मन्दता से अधिक हानिकर अज्ञान का होना है । वह इसलिए कि अज्ञानी व्यक्ति न तो वीतराग वाणी पर पूर्ण आस्था रखता है और न धर्मोपदेशकों के बताए हुए सत्पथ पर ही चल पाता है। क्योंकि अज्ञानावस्था के कारण वह सत्य को असत्य और यथार्थ को मिथ्या समझ लेता है ।
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