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सत्य ते असत्य दिसे
धर्मप्रेमी बन्धुओ, माताओ एवं बहनो !
संवर तत्त्व के सत्तावन भेदों में से अट्ठाईसवें भेद "प्रज्ञा परिषह" का वर्णन हमने किया था । आज उन्नीसवें भेद 'अन्नाण परिषह' यानी अज्ञानपरिषह को लेना है।
इस विषय में 'श्री उत्तराध्ययन सूत्र' के दूसरे अध्याय की बयालीसवीं गाथा में भगवान ने फरमाया है
निरठूगम्मि विरओ, मेहणाओ सु-संवुडो।
जो सक्खं नाभिजाणामि, धम्म कल्लाण-पावगं ॥ संसार का प्रवृत्तिमार्ग छोड़कर निवृत्तिमार्ग में प्रवेश करके व्यक्ति पंच महाव्रत धारण कर साधु बन जाता है किन्तु ज्ञान प्राप्ति के अभाव में जब वह दूसरों के द्वारा पूछे गये प्रश्नों का समाधान नहीं कर पाता तो विचार करने लगता है-"अरे, मैं पावन और कल्याणकारी धर्म को भलीभाँति नहीं जानता अतः दुनियादारी छोड़कर मेरा साधुपना लेना और महाव्रतों का धारण करना निरर्थक हो गया।"
साधक के हृदय में ऐसे विचारों का आना अज्ञानदशा का परिचायक है। अज्ञान के कारण ही वह विचार करता है कि-'इस साधुत्व और व्रत-संयम की अपेक्षा तो संसार के सुखोपभोग अच्छे थे।' किन्तु ऐसा विचार करना साधक के लिए उचित नहीं है। उसे केवल यही विचार करना चाहिए कि-'मेरे पूर्वोपार्जित कर्मफलों के कारण ही मुझे ज्ञान की प्राप्ति नहीं हुई है और मैं धर्म के मर्म को समझ नहीं पाया हूँ पर भगवान के द्वारा निर्देशित संवर-मार्ग पर तो चल सकता हूँ और अपने गृहीत व्रतों का दृढ़ता से पालन कर सकता हूँ। अज्ञान दशा मेरे लिए परिषह है और मुझे उस पर समभाव से विजय प्राप्त करना है।'
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