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पकवान के पश्चात् पान
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तो मैं आपको यह बता रहा था कि धर्म को धारण करने वाले व्यक्ति के लिए दान देना अत्यावश्यक ही नहीं, अनिवार्य है । स्वयं तीर्थंकर भी दीक्षा लेने से पूर्व एक वर्ष तक दान देते हैं, जिसे वर्षी-दान कहा जाता है । इसीलिए दान को धर्मरूपी पान की अनिवार्य एवं महत्त्वपूर्ण वस्तु माना गया है। आगे इस विषय में बताया है--
गुण-शील रूपी पत्ते आप जो द्रव्य-पान खाते हैं इसमें नागरबेल के पत्ते होते हैं । किफायत की दृष्टि से अब जो पान खाये जाते हैं उनमें अधिकांश एक पत्ते के या आधे पत्ते के ही बीड़े बना देते हैं । किन्तु यह धर्मरूपी पान का बीड़ा पूरे दो पत्तों का बनता है और वे पत्ते हैं- सद्गुण एवं शील ।
प्रेम, दया, करुणा, नम्रता, सहनशीलता, सद्भावना एवं सरलता आदि आत्मा के सद्गुण हैं और शील मानव के जीवन को ऊँचा उठाने वाला है । धर्म ग्रन्थ कहते हैं-- "सीलगुणवज्जिदाणं, णिरत्थयं माणुसं जम्मं ।"
-शीलपाहुड, १५ अर्थात्-शीलगुण से रहित व्यक्ति का मनुष्य-जन्म पाना निरर्थक ही है।
आशय यही है कि शील के अभाव में व्यक्ति कभी भी अपने जीवन को निर्दोष नहीं बना सकता और जीवन के दोषपूर्ण होने से आत्म-कल्याण नहीं किया जा सकता। श्री उत्तराध्ययन सूत्र में भी कहा है
चीराजिणं नगिणिणं जडी संघाडि मुंडिणं ।
एयाणि वि न तायन्ति दुस्सीलं परियागयं ॥ अर्थात्-चीवर, मृगचर्म, नग्नता, जटाएँ और सिरमुंडन आदि सभी उपक्रम 'दुस्सील' यानी कुशील का सेवन करने वाले साधक की रक्षा नहीं कर सकते ।
इसीलिए गुण एवं शील को धर्मरूपी पान का सर्वोत्तम अंग माना गया है । सर्वोत्तम इसलिए कि भले ही अन्य सब वस्तुएँ हों, पर पान के पत्ते न हों तो बीड़े कैसे बनेंगे ? यानी नहीं बन सकेंगे।
इन सब बातों को लेकर ही कविता में कहा गया हैमुनिराजों को दान करना यह, कपूर सम कहलाता है। उत्तम गुण-शील दो पान यहाँ, कोई धर्म वीर सेवन करते ॥
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