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ऐरे, जीव जौहरी ! जवाहिर परखि ले
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आत्म- गुणों की पहचान के लिए दुनिया भर की किताबों को पढ़ जाना और उन्हें कंठस्थ करना आवश्यक नहीं है, न ही बड़ी-बड़ी डिग्रियाँ हासिल करने की और तर्क-वितर्क करने की शक्ति प्राप्त करने की ही जरूरत है । जरूरत केवल वीतराग के वचनों पर पूर्ण विश्वास रखने की और उनके कथनानुसार हिंसा, झूठ, चोरी, राग, द्वेष एवं कषायादि से बचकर क्षमा, करुणा, सेवा, प्रेम, अहिंसा, सत्य, प्रार्थना, ध्यान, चिंतन-मनन तथा यथाशक्ति नियम - पालन एवं त्याग करने की है । अब आप ही बताइए कि इन गुणों को अपनाने के लिए महाविद्वान और दिग्गज पंडित बनना अनिवार्य है क्या ? नहीं, आत्म-कल्याण का इच्छुक और भगवान के वचनों पर आस्था रखने वाला साधारण व्यक्ति भी बिना शिक्षा का बोझ अपने मस्तक पर लादे हुए अपने शुद्ध एवं निर्दोष आचरण से ही धर्म के मार्ग पर चल सकता है ।
चमार रैदास, डाकू अंगुलिमाल, हत्यारा अर्जुनमाली एवं चांडाल हरिकेशी, क्या इन सबने महाज्ञानी या पण्डित बनकर ही अपने जीवन को धर्ममय बनाया था ? नहीं, केवल छोटे से निमित्तों के द्वारा ही इन्होंने संसार के सच्चे स्वरूप को समझकर पापों का त्याग किया था और संत-जीवन अपनाकर आत्मकल्याण के मार्ग पर चल पड़े थे ।
कहने का अभिप्राय यही है कि अधिक विद्वत्ता और तर्क शक्ति प्राप्त कर लेने से ही मानव अपने उद्देश्य की प्राप्ति नहीं कर सकता । अनेक बार तो ऐसा होता है कि अधिक ज्ञान का बोझ मस्तक पर लाद लेने वाला व्यक्ति क्या करना और क्या नहीं करना ? इस विवाद में ही उलझ कर रह जाता है तथा भिन्न-भिन्न मतों और धर्मों के चक्कर में पड़कर किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाता है । परिणाम यह होता है कि कभी वह एक सिद्धान्त को ठीक मानता है और कभी दूसरे को, इसलिए वह जीवन भर अपने आचरण में किसी भी सिद्धांत को नहीं ला पाता; यानी आचरण के अभाव में कोरा का कोरा रह जाता है । केवल ज्ञान या तर्क-वितर्क उसे मुक्ति के मार्ग पर चला नहीं पाते और चले बिना मंजिल दूर ही रह जाती है । एक छोटा-सा उदाहरण है ।
प्रार्थना करो तो सही !
एक बार कुछ विद्वान व्यक्ति किसी समारोह में सम्मिलित होने के लिए एक गाँव में गये । समारोह के सम्पन्न हो जाने पर वे साथ ही लौटे और मार्ग में थक जाने के कारण कुछ देर विश्राम करने के लिए एक विशाल बट वृक्ष के नीचे बैठ गये । वहाँ बैठकर वे आपस में विचार करने लगे कि ईश्वर की स्तुति करते समय व्यक्ति को क्या माँगना चाहिए ।
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