________________
क्षमा वीरस्य भूषणम्
३७१
अज्ञानता के कारण क्षम्य है। किन्तु आप तो हीरे की कीमत और उसका महत्त्व समझाते हैं । फिर भी हाथ में आने पर उसे फैक रहे हैं, ऐसी स्थिति में आपको क्या कहा जाय ? यही कि अनन्त पुण्यों से कमाये हुए मानव-जीवन रूपी चिन्तामणि रत्न को आप कषाय रूपी ठीकरे के बदले फेंक रहे हैं। किन्तु वह ठीकरा आपके किस काम आयेगा ? किसी काम नहीं । चिन्तामणि रत्न से आप इच्छा करते ही जो चाहें पा सकते हैं, ठीकरे को तो भले ही जीवनभर पूजें और उसकी स्तुति करें कुछ भी हासिल नहीं होगा। शास्त्रों में भी कहा है
जं अज्जियं चरितं, देसूणाए वि पुवकोडीए । तं पि कसाइयमेत्तो, नासेइ नरो मुहुतणं ॥
-निशीथभाष्य, २७६३ अर्थात्-देसोनकोटि पूर्व की साधना के द्वारा जो चारित्र अजित किया है, वह अन्तर्मुहूर्त भर के प्रज्वलित कषाय से नष्ट हो जाता है ।
कितनी मार्मिक और यथार्थ बात है ? यही मैं दूसरे शब्दों में आपको अभी बता रहा था। वस्तुतः अनन्त पुण्यों के बल पर हमने जो श्रावकधर्म या मुनिधर्म प्राप्त कर पाया है उसे कषायों की आग से बचाना ही है । अगर वह पलभर के लिए भी भड़क गई तो हमारा अब तक का अजित किया हुआ आत्मधन निरर्थक चला जायेगा ।
यह बात केवल आप श्रावकों के लिए ही नहीं है वरन् जैसा कि अभी मैंने बताया है, साधुओं के लिए भी पूर्णतया लागू होती है। इसीलिए धर्म-शास्त्र स्पष्ट कहते हैं
सामन्नमणुचरन्तस्स कसाया जस्स उक्कडा होति । मन्नामि उच्छुफुल्लं व निष्फलं तस्स सामन्न।
-दशवैकालिक नियुक्ति ३०१ कहा है-श्रमण धर्म का अनुसरण करते हुए भी जिसके क्रोधादि उत्कृष्ट कषाय हैं, उसका श्रमणत्व वैसा ही निरर्थक है, जैसे ईख का फूल।
तो बन्धुओ, आप समझ गये होंगे कि कषायों का नाश प्रत्येक मुमुक्षु के लिए आवश्यक है, चाहे वह श्रावक हो या साधु । वेश का कोई भी महत्त्व नहीं है, महत्त्व आत्म-शु द्धि या कषायों की विलीनता का है । जिस प्रकार कीमत तलवार की होती है, म्यान की नहीं, उसी प्रकार मुक्ति रूपी कीमत आत्म-गुणों की मिलती है, किसी वेश की नहीं । इस स्थिति में मुख्य बात है कषायों को नष्ट करना और कषाय नष्ट हो सकते हैं क्षमा के द्वारा क्षमा शीतल
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org