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________________ गहना कर्मणो गतिः २३ किन्तु उस बहन के दिल में यह भावना आई कि--'मैं रास्ते में बैठी थी अतः सन्त लौट गये हैं, पर कुछ समय पश्चात् घूम-फिरकर आ जाएँगे।' गौतम स्वामी जब आहार लेकर अपने स्थान पर लौटे तो उन्होंने उत्सुकतावश भगवान से पूछ लिया-"भगवन् ! आज मुझे दो घरों पर एक जैसा संयोग मिला था । कृपया बताइये कि दोनों घर की बहनों में से किसके कर्म अधिक बँधे ?" । भगवान ने फरमाया-"पहले घर की बहन को तुम्हारे लौट जाने पर अत्यन्त पश्चात्ताप हुआ था अतः उसके कर्म-बन्धन कम हुए। किन्तु अगले घर की बहन ने सोचा कि सन्त थोड़ी देर बाद घूम-घामकर आ जाएँगे । उस बहन को अपने पाप पर कोई पछतावा नहीं हुआ अतः उसके ज्यादा पापकर्म बंधे हैं।" - इस उदाहरण से स्पष्ट है कि भावना ही हलके कर्म बाँधती है और भावना ही चिकने । कर्मों का क्षय भी भावना ही करती है और उन्हें इकट्ठा करना भी उसी का कार्य है । भावों की भिन्नता के उदाहरण आप आए दिन देखते भी हैं, जैसे-तिजोरी की चाबी न देने पर डाकू व्यक्ति का शरीर शस्त्र से काट देता है और डॉक्टर रोगी की जान बचाने के लिए उसके शरीर को चीरता है। शस्त्र डाकू और डॉक्टर दोनों ही चलाते हैं किन्तु डाकू के द्वारा अंग-भंग किये जाने के पीछे महान् क रता और निर्दयता होती है तथा डॉक्टर के द्वारा शरीर चीरे जाने या कोई सड़ा हुआ अंग काटे जाने के पीछे दया, सहानुभूति, प्राणदान और कर्तव्य की भावना रहती है। इन कार्यों को देखकर आप सहज ही अनुमान लगा सकते हैं कि एक ही प्रकार का कार्य करने पर भी चोर-डाकू के कर्म किस प्रकार के बँधेगे और डॉक्टर के किस प्रकार के ? कोई भी समझदार व्यक्ति पाप हो जाने पर प्रसन्न नहीं होता उलटे दुःखी होता है, जबकि अज्ञानी व्यक्ति को उससे भय नहीं लगता । किन्तु उन कर्मों का जब उदय होता है तो मामला उलटा हो जाता है । अर्थात्-अज्ञानी व्यक्ति तो रो-रोकर उन्हें भोगता है और ज्ञानी यह सोचकर कि-"मैंने अज्ञानवश जो कर्म किये हैं, उन्हें भोगना तो पड़ेगा ही फिर दुःख किसलिए ?" यह विचारता हुआ समतापूर्वक उन्हें सहन कर लेता है । ___ "भगवती सूत्र' में वर्णन आता है कि नरक में भी जीव समदृष्टि, मिथ्यादृष्टि और मिश्रदृष्टि होते हैं। किन्तु समदृष्टि जीव यह सोचते हैं-"हे आत्मन् ! तूने जैसे कर्म बाँधे हैं उन्हें भुगतना तो पड़ेगा ही फिर दुःखी होकर आर्तध्यान करते हुए नवीन कर्म क्यों बाँधना ?" पर मिथ्यादृष्टि वाले नारकीय प्राणी रोते-पीटते हैं, हाहाकार करते हैं और इस प्रकार अनेकानेक नये कर्म और भी बाँधते चले जाते हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004010
Book TitleAnand Pravachan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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