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सुनकर सब कुछ जानिए
निर्जरा करके जीवन का लाभ उठायेगा । यह भी हो सकता है कि कभी वह माता मरुदेवी और भरत चक्रवर्ती के समान भावों में तीव्र उत्कृष्टता ले आये और पल भर में ही सर्वोच्च केवलज्ञान की प्राप्ति करके सदा के लिए निहाल हो जाए ।
कहने का अभिप्राय यही है कि शास्त्र श्रवण से ही मानव आत्मा में निहित अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन एवं चारित्र के महत्त्व को समझेगा तथा पापों के अठारह भेदों की जानकारी कर सकेगा ।
दशवैकालिकसूत्र के चौथे अध्ययन में कहा गया है
सोच्चा जाणइ कल्लाणं सोच्चा जाणइ पावगं । उभयं पि जाणइ सोच्चा जं सेयं तं समायरे ॥
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अर्थात् — जो मुमुक्षु प्राणी होता है वह सुनकर ही कल्याण के मार्ग को और सुनकर ही पाप के मार्ग को जानता है । पुण्य और पाप दोनों को समझकर वह आत्मा के लिए हितकर मार्ग को अपना लेता है ।
स्पष्ट है कि जो व्यक्ति आगम-श्रवण करता है वही पाप के मार्ग को और कल्याण के मार्ग को पहचान सकता है । आप सोचेंगे कि पाप के विषय में जानना क्या आवश्यक है ? धर्म को या धर्माचरण के विषय में जान लेना ही तो काफी है । पर ऐसा विचार ठीक नहीं है । जब तक मनुष्य यह नहीं जानेगा कि पाप कौन - कौनसे हैं और उनका क्या परिणाम होता है ? तब तक वह उनसे भयभीत कैसे होगा और उनसे बचने का प्रयत्न भी क्यों करेगा ? जिसे यह जानकारी होगी कि झूठ बोलना और चोरी करना पाप है और इनके परिणाम स्वरूप नरक के भयंकर दुःख भी सहन करने पड़ते हैं, वही तो चोरी का और झूठ का त्याग करेगा ।
इसीलिए नौ तत्त्वों में जहाँ संवर, निर्जरा और मोक्ष के बारे में बताया गया है, वहाँ पाप, आस्रव और बन्ध की भी पूरी जानकारी कराई गई है । यह इसीलिए कि व्यक्ति पापों के स्वरूपों को तथा उनके भयंकर परिणामों को भलीभाँति समझ ले और तब पूर्ण आस्था तथा लगन पूर्वक संवर, निर्जरा और मोक्ष के मार्ग पर बढ़ जाये ।
जान-बूझकर विषपान
बन्धुओ, हमारे सामने कल्याण का मार्ग भी है और पापोपार्जन का भी । आवश्यकता है इन दोनों में से एक के चुनने की। वैसे मैं अभी आपसे प्रश्न करूँ कि आप किस मार्ग पर चलना चाहते हैं ? तो एक भी व्यक्ति यह नहीं कहेगा कि मैं पाप के मार्ग को पसन्द करता हूँ और उस पर चलना चाहता हूँ ।
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