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आनन्द प्रवचन : सातवाँ भाग
उसके बुझ जाने पर फिर घोर अन्धकार में कैसे उसे खोजोगे और किस प्रकार उसमें तेल डालकर प्रज्वलित करोगे ?
दूसरे चरण में, चोरों का उदाहरण दिया है कि 'जब वे धन-सम्पत्ति चुराकर चले जाएँगे, तब फिर तुम्हारे सावधान होने से क्या लाभ होगा ?' इसी विषय को लेकर अभी बताया भी गया है कि जब तक तुम्हारे रत्नत्रय सुरक्षित हैं तब तक जागते रहो और उनसे लाभ उठालो। पर अगर 'काम' रूपी चोर ने इन्द्रियों के द्वारा उन्हें ठगाई करवाकर छिनवा लिया तो फिर तुम्हारे जागकर सावधान होने से कुछ भी नहीं बन सकेगा। केवल पश्चात्ताप ही हाथ आएगा।
तो बन्धुओ, जैसा कि अभी भजन में कहा गया है-बड़े पराक्रम से संचित किये हुए पुण्यों के फलस्वरूप यह मानव-जन्म हमें मिला है। इसे कितनी कठिनाई से प्राप्त किया है यह बताते हुए पण्डितरत्न श्री शोभाचन्द्र जी भारिल्ल ने अपनी 'बोधि-दुर्लभ-भावना' पर लिखी हुई पद्य रचना में कहा है
चेतन रह निगोद में तूने काल अनन्त गँवाया। एक श्वास में बार अठारह जन्म-मरण दुख पाया ।। निकला यदि निगोद से पाकर किसी भांति छुटकारा। पृथ्वी पानी तेज वायु या हरित काय तन धारा ।। बादर और सूक्ष्म हो होकर काल असंख्य बिताया। पुण्ययोग से चिन्तामणि सम तब त्रसजीवन पाया । पाकर त्रस पर्याय हुआ विकलेन्द्रिय जीव अजाना।
इस प्रकार दुर्लभ है भाई पाँच इन्द्रियाँ पाना ।। कवि ने जीव को बोध देने के लिए कहा है--
"अरे जीव ! तू यह मत समझ कि मुझे सहज ही मनुष्य जन्म मिल गया है । अपितु भली-भाँति जानले कि सर्वप्रथम तो अनन्त काल तक तू निगोद में रहा, जहाँ एक श्वास में तेरा अठारह बार जन्म और उतनी ही बार मरण होता था । उसके पश्चात् किसी प्रकार वहाँ से छूटा तो पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति काय धारण करते हुए बादर और सूक्ष्म हो होकर भी तुझे असंख्य काल व्यतीत करना पड़ा ।
इसके बाद किसी तरह पुण्यभोग से अमूल्य रत्न के समान त्रस जीवन की
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