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________________ ३१६ आनन्द प्रवचन : सातवाँ भाग मुसाफिर मानकर उसे इसी जन्म में सही मार्ग खोजकर उस पर बढ़ जाना चाहिए। अगर वह ऐसा नहीं करता है तो इस जीवन की समाप्ति के साथ ही ज्ञान का प्रकाश लुप्त हो जाएगा और फिर अनन्तकाल तक वह अज्ञान के अँधेरे में ठोकरें खाता हुआ भटकता रहेगा। इसीलिए महापुरुष जीव को इस दुर्लभ-जीवन में प्रमाद या मिथ्यात्व की निद्रा से बचने का उपदेश देते हैं। वे कहते हैंऊंघो मत पंथी जन संसार अटवी वन, काम रूपी नगर में रहे काम चोर है। जीव है बटाऊ यामे आय कर वास कियो, __ठगणी है पाँच याको मुलक में शोर है । ज्ञानाधिक गुण रूप रतन अमोल धन, ऊंचे तो ले जाय तेरो, मिथ्यातम घोर है। कहत तिलोक सद्गुरु चौकीदार रूप, जाग रे बटाऊ ऊंघे मत हुई भोर है । पूज्य श्री त्रिलोक ऋषिजी महाराज ने भी संसार के प्राणियों को मुक्तिमार्ग के मुसाफिर मानकर उन्हें बोध देते हुए कहा है “पथिको ! तुम ऊँघो मत, सजग रहो और शीघ्रता से अपनी मन्जिल पर पहुँचने का प्रयत्न करो अन्यथा भारी हानि उठानी पड़ेगी।" वह हानि क्या है ? इस विषय में आगे उन्होंने स्वयं ही बताया है कि-"यह संसार एक विशाल अटवी या जंगल है। जीवात्मा इस जंगल में भटकते-भटकते मनुष्य देह रूपी नगर पा गया है और इसमें पड़ाव डाले हुए है। किन्तु यह नगर भी खतरे से खाली नहीं है क्योंकि इसी काया-नगर में वासना या इच्छा रूपी चोर 'काम' रहता है। काम रूपी चोर भी अकेला नहीं है उसकी सहायता करने वाली पाँच इन्द्रियाँ हैं जो ठगिनी के रूप में 'काम' की सहायता करती हैं । जीवात्मा को भुलावे में डालकर लूट लेने में ये बड़ी सिद्धहस्त हैं, जिनका सारा मुल्क लोहा मानता है। अब प्रश्न उठता है कि ये ठगिनी इन्द्रियाँ मानव को चक्कर में डालकर उसका क्या छीनती हैं ? उत्तर में कहा जाता है कि यह जीवात्मा लम्बे काल से सफर करता हुआ सौभाग्य से मानव-जन्म रूपी पड़ाव पर आता है या शरीर रूपी सराय में विश्राम के लिए ठहरता है। जो जागरूक जीव होता है वह तो सजग रहता है तथा बिना प्रमाद-निद्रा लिए अविराम कदमों से मन्जिल की Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004010
Book TitleAnand Pravachan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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