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________________ ३०४ आनन्द प्रवचन : सातवां भाग चाहूँ तो क्षण भर में ही इसके एक किनारे से दूसरे किनारे पर पहुँच जाऊँ । उस सिंह के बच्चे के समान जो कि तब तक भेड़ों के साथ खूटे से बंधा रहा, जंगलों में भटकता रहा और गड़रिये की मार खाता रहा, जब तक कि दूसरे सिंह को देखकर उसे अपनी शक्ति का भान नहीं हुआ। पद्य में कवि इसीलिए अपनी आत्मा को जगाने का प्रयत्न करते हैं तथा अन्य महापुरुष और संत-महात्मा भी प्राणियों को अपनी आत्म-शक्ति का भान उपदेशों के द्वारा कराने की कोशिश करते हैं। पर जो भव्य-प्राणी होते हैं वे उस सिंह के बच्चे के समान जो एक ही गर्जना से अपनी शक्ति को पहचान गया था, तनिक से उपदेश से ही चेत जाते हैं पर बाकी अनेक मनुष्य जीवन भर उपदेश सुनकर भी अपनी आत्मा में छिपे हुए महान् गुणों को तथा उनकी शक्तियों को नहीं जान पाते । ऐसा इसीलिए होता है कि वे आत्म-धर्म को जानने के बजाय पर-धर्म के पीछे दौड़ते हैं। - पूज्य महाराज श्री आगे कहते हैं- "अरे आत्मन् ! अगर तू अपना भला चाहता है तो सच्चे देव, सच्चे गुरु एवं सच्चे धर्म को समझ, निश्चय एवं व्यवहार को पहचान तथा भली-भाँति समझ ले कि सच्चे सम्यक्त्व के बिना तू नाम का ही मानव है, मनुष्य-जन्म को सार्थक करने की योग्यता तुझमें नहीं है । सच्चे देव ___ इस संसार में हम देखते हैं कि देवताओं की कमी नहीं है । संभवतः तेतीस करोड़ देवी-देवताओं को लोग भिन्न-भिन्न प्रकार से पूजा करते हैं। अब इन सबमें से सच्चे देव कौन से हैं यह पहचान करना बड़ा कठिन है । किसी ने कहा है जगत के देव सब देखे, सभी को क्रोध भारी है, कोई कामी कोई लोभी, किसी के संग नारी है। वस्तुतः सच्चे देव की पहचान करने के लिए गम्भीर चिंतन की आवश्यकता है। देखा जाता है कि अनेक देवों की मूर्तियाँ अपनी पत्नी सहित होती हैं । शिव के साथ पार्वती, कृष्ण के साथ राधा, विष्णु के साथ लक्ष्मी और राम के साथ सीता रहती है । तो जो देव नारी के मोह से स्वयं को नहीं छुड़ा पाते, वे भला वीतराग कैसे माने जा सकते हैं ? इसी प्रकार किसी देव के साथ मुद्गर या गदा रहती है, जिससे साबित होता है कि उन्हें अपनी शक्ति का गर्व है और किसी पर क्रोध आ जाये तो वे उसका नाश कर सकते हैं। शीतला , देवी या महाकाली के प्रकोप से लोग कितना डरते हैं, यह हम आये दिन देखते Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004010
Book TitleAnand Pravachan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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