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________________ २८८ आनन्द प्रवचन : सातवाँ भाग बेचारे भोज के लिए भिक्षुक की बातें बड़ी विस्मयजनक साबित हो रही थीं। उन्होंने बड़े आश्चर्य से फिर भी पूछा- "तुम वेश्याओं के यहाँ जाते हो ? पर उन्हें देने के लिए पैसा कहाँ से आता है तुम्हारे पास ? बिना पैसे के वेश्या तो अपनी देहरी भी लाँघने नहीं दे सकती।" ___ भिखारी ने पूर्ववत् गम्भीरता से उत्तर दिया--"आपकी बात सच है । वेश्या बिना पैसे के अपने यहाँ नहीं आने देती, पर मैं जुआ खेलकर या चोरी करके पैसा भी तो ले आता हूँ।" राजा भोज की आँखें तो मानो कपाल पर ही चढ़ गईं । उन्होंने घोर आश्चर्य से कहा--"तब तो लगता है कि तुम में सारे ही दुर्गुण एक के बाद एक करके इकट्ठे हो गये हैं ।” ... "हाँ महाराज ! सत्य यही है कि एक दोष के आते ही दूसरे सम्पूर्ण दोष भी स्वयं उसके पास आ जाते हैं। क्या आपने वह कहावत नहीं सुनी-“छिद्रेध्वना बहुली भवंति ।" यानी--एक छेद से बहुत से छेद तैयार हो जाते हैं, इसलिए हमें अपने आचरण में एक भी दोष रूपी सुराख नहीं रहने देना चाहिए। भिक्षुक के इस प्रकार कहते ही भोज ने अपने प्रिय कवि कालिदास को पहचान लिया और हँस पड़े। तो बन्धुओ, मैं आपको यह बता रहा था कि महात्मा जी ने अपने उपदेश में लोगों से यही कहा कि जो व्यक्ति जीवन में एक भी व्यसन अपना लेता है वह नेस्तनाबूद हो जाता है, तब फिर जो अज्ञानी व्यक्ति सातों ही व्यसन ग्रहण कर लेते हैं, उनको नरक के सिवाय और कहाँ स्थान मिलेगा? महात्मा जी की यह बात सुनते ही श्रोताओं में से एक व्यक्ति उठ खड़ा हुआ, जिसमें बताए हुए सभी व्यसन थे। वह पूछ बैठा--"महाराज, नरक कितने हैं ?" सन्त ने सहजभाव से उत्तर दिया--"सात ।" यह सुनकर वह व्यसनी पुरुष बोला-"तब ठीक है कि नरक सात ही हैं । अन्यथा मेरी तो चौदह नरक तक जाने की तैयारी की हुई है।" मुनिराज ने कहा- "भाई ! एक ही नरक का दुःख असहनीय है, तुम तो सातों नरकों की परवाह नहीं करते। पर जब जीव वहाँ जाता है तब पता चलता है।" ___ वह व्यक्ति कुतर्की था अतः संत के उपदेश पर ध्यान न देते हुए फिर पूछ बैठा-"अच्छा महाराज ! मान लीजिये कि नरक सात हैं और सभी एक-से Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004010
Book TitleAnand Pravachan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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