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________________ २८६ आनन्द प्रवचन : सातवाँ भाग से अब तक कहाँ-कहाँ गमनागमन करना पड़ा है और कितने-कितने कष्ट भोगने पड़े हैं ? (१) अधोलोक लोक के स्वरूप को जानने के लिए सर्वप्रथम यह जानना चाहिए कि अधोलोक में सात नरक हैं । शास्त्रकार सदा प्रारम्भ में अधोलोक का वर्णन करते हैं। हमारा शरीर भी ऐसा है कि जब पैर गति करेंगे तब शरीर आगे बढ़ेगा । थोकड़ों में चौबीस दंडक आते हैं, उनमें पहला दंडक नारकीय है । तो सातों नरकों में अपार वेदना भोगनी पड़ती है। अपने पापों के कारण जब जीव उनमें जाता है तो वहाँ विद्यमान पन्द्रह प्रकार के परमाधार्मिक देव एवं दस भवनपति असुर कुमार, नाग कुमार तथा सुपर्णकुमार आदि अत्यन्त कर एवं निर्दय असुर जीव को घोर या असह्य कष्ट पहुँचाते हैं। वे नारकीय शरीर को पारे के समान कण-कण के रूप में पुनः-पुन: बिखेर देते हैं, असीम भूख और प्यास लगने पर भी अनाज का एक भी कण या पानी की एक बूंद भी नहीं देते, आपस में बुरी तरह लड़ाते हैं तथा शरीर को क्षत-विक्षत कराकर आनन्दित होते हैं। इसके अलावा नरक की भूमि का तो स्पर्श भी हजारों बिच्छुओं के एक साथ डंक मारने की वेदना के समान कष्टकर होता है । वहाँ के पेड़ भी ऐसे पत्तों वाले होते हैं, जो एक भी शरीर पर गिर जाये तो तलवार के समान शरीर को चीर डालता है। ___ कहने का अभिप्राय यही है कि अधोलोक में जीव नरकों की घोर यातनाएँ सहता है । इसीलिए महापुरुष प्राणियों को बार-बार उद्बोधन एवं उपदेश देते हैं कि पाप-कर्मों से यानी आस्रव से बचो तथा संवर और निर्जरा की आराधना करो । अन्यथा नरक गति में जाना पड़ेगा और दीर्घकाल तक वहाँ से छुटकारा नहीं मिलेगा । नरक गति में आयुष्य भी कम से कम दस हजार वर्ष और अधिक होने पर तेतीस सागरोपम तक का होता है। क्या यह कम समय है ? हम तो वर्तमान काल में अनुभव करते हैं कि ऐश-आराम और सुखों में तो समय का पता नहीं चलता, किन्तु दुःख के समय में एक-एक क्षण निकलना भी कठिन हो जाता है । तब फिर नरक में हजारों वर्ष प्रतिपल असह्य दुःख में बिताना जीव के लिए कितना कठिन होता होगा ? स्पष्ट है कि अत्यन्त कठिन और कष्टकर होता है, पर मानव इस बात को समझें तथा वीतराग की वाणी पर विश्वास करके नरक में ले जाने वाले पाप-कर्मों से बचें, तभी सन्त-महापुरुषों का उपदेश सार्थक हो सकता है। भव्य पुरुष तो सन्त-समागम एवं शास्त्रीय वचनों पर आस्था रखने के कारण अधोलोक के स्वरूप को समझकर ही भयभीत हो जाते Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004010
Book TitleAnand Pravachan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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