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________________ २० कर कर्म-निर्जरा पाया मोक्ष ठिकाना धर्मप्रेमी बन्धुओ, माताओ एवं बहनो ! कल हमने संवरतत्त्व या संवर भावना के विषय में संक्षिप्त विवेचन किया था । आस्रव के अवरोध को संवर कहते हैं । अनन्तकाल से जो कर्म आ-आकर आत्मा को आच्छादित करते जा रहे हैं, उनके आगमन को सन्त-महापुरुष संवर की आराधना करके रोकते हैं । जो मुमुक्षु अपनी इन्द्रियों पर और मन पर पूर्ण नियन्त्रण रखते हुए राग-द्वेष से निवृत्त होते हैं, वे ही सच्चे अर्थों में संवर की उपासना कर पाते हैं यानी कर्मों के आगमन को रोक सकते हैं । ___ संवर-भावना के बाद आज हमें 'निर्जरा-भावना' को लेना है। कोई यह प्रश्न कर सकता है कि कर्मों के आगमन या आस्रव को संवर के द्वारा रोक लिया जाय तो फिर और क्या करना बाकी रह जाता है ? कर्मों का बँधना ही तो दुःख की बात है और उन्हें ही जब बँधने से रोक लिया तो काफी है। पर ऐसा विचार करना और संवर से ही सन्तुष्ट हो जाना आत्म-मुक्ति के लिए काफी नहीं है। यह सही है कि संवर से नवीन कर्मों का आगमन रुक सकता है, किन्तु भाइयो ! जो पूर्वबद्ध कर्म होते हैं उन्हें भी तो क्षय करना आवश्यक है। अगर उन्हें नष्ट नहीं किया जायेगा तो वे उदय में निश्चय ही आएँगे और न जाने कितने काल तक घोर दुःखों के रूप में अपना फल प्रदान करेंगे। अनिच्छा होने पर भी उनके आक्रमण से जीव बच नहीं सकेगा। इसलिए आवश्यक है कि बद्ध कर्मों का क्षय किया जाय और उन्हें क्षय करना ही निर्जरा कहलाता है। पं० शोभाचन्द्र जी 'भारिल्ल' ने निर्जरा के विषय में लिखा है चेतन से कुछ-कुछ कर्म दूर होते हैं, निर्जरा तत्त्व जिनदेव उसे कहते हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004010
Book TitleAnand Pravachan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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