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आनन्द प्रवचन: सातवाँ माग
के मार्ग पर मत चलने दो, यही विचार करो कि - 'मेरे जीव ने जब अनन्तानन्त बार नरकों का कष्ट भोग लिया है तब उनके मुकाबले में ये साधारण से कष्ट क्या महत्त्व रखते हैं ?"
किनारे पर आकर निष्क्रिय मत बनो
वीतराग के वचनों पर आस्था रखने वाले धर्मात्मा पुरुष भी कहते हैं"भाई ! आठवीं 'संवर भावना' एक प्रकार से भव-समुद्र का नजदीक आया हुआ किनारा है; अतः अब पुनः आस्रव के द्वारा फिसल कर समुद्र में गोते लगाने के लिए मत चले जाओ, वरन् इस भावना को भाते हुए थोड़ी श्रम-साधना करके बाहर निकल आओ ।"
यह बात अक्षरशः यथार्थ है । अनन्तकाल तक चौरासी लाख योनियों में पुनः पुनः जन्म-मरण करना संसार-सागर या भव-समुद्र में गोते लगाना ही है । वह तो जीव कर चुका । पर अब स्वर्ण - संयोग से मनुष्य जन्म, उच्च कुल, आर्य क्षेत्र एवं सन्त समागम की सुविधा रूप भव सागर का किनारा प्राप्त हो गया है तथा थोड़े से प्रयत्न से ही जब इससे बाहर निकल कर मुक्ति का शाश्वत आनन्द प्राप्त किया जा सकता है तो असावधानी, मिथ्यात्व प्रमाद या अश्रद्धा के कारण किनारे की ओर न आकर पुनः मझधार की ओर चले जाना कहाँ की बुद्धिमानी है ? दूसरी बात, अनन्तकाल से घोर परिश्रम करके जो पुण्य जुटाये हैं तथा मानव जन्म रूपी किनारा पा लिया है तो फिर थोड़े-से परिश्रम के लिए प्रमाद क्यों करना ? जबकि थोड़ा सा आगे बढ़ने पर शाश्वत सुख की प्राप्ति हो सकती है, और थोड़ा सा पीछे हटते ही घोर दुःखों के बीच जाना होता है ।
बन्धुओ, आप जानते हैं कि तराजू के दो पलड़े होते हैं । किन्तु एक पलड़े में तनिक-सा वजन डाल देने पर वह झुक जाता है और दूसरे पलड़े में वही वजन डाल देने पर वह झुकता है । मानव जन्म भी तराजू की ऐसी ही डण्डी है, जिसके एक पलड़े में संसार से मुक्ति है और दूसरे में अनन्तानन्त दुःख । अब आप ही विचार कीजिये कि ऐसी स्थिति में हमें किस पलड़े को झुकाना चाहिये ? संवर की भावना को ग्रहण करते हुए उसके अनुसार साधना करली तो मुक्ति रूपी पलड़ा झुक जाएगा यानी जीव संसार-मुक्त हो सकेगा और असावधानी या प्रमाद से आस्रव कर लिया तो भवसागर के दुःखों वाला पलड़ा झुकेगा तथा जीव पुनः भवसागर में अनन्तकाल तक गोते लगाने के लिए चल देगा |
इसलिए कवि के कथनानुसार मनुष्य को अपने जीवन का महत्त्व समझते
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