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आनन्द प्रवचन : सातवाँ भाग
पद्य में संक्षिप्त उत्तर है कि मोह-ममता, विषय-विकार, राग-द्वेष एवं चारों कषायों को त्याग कर तप के बारहों प्रकारों को अपनाओ।
राग-द्वेष को समझने के लिए उदाहरण दिया जा सकता है-मान लीजिए, किसी अन्य व्यक्ति ने आपकी कोई प्रिय पुस्तक असावधानी से फाड़ डाली। यह देखकर क्रोध के मारे आपने उसे गालियाँ दीं। क्यों दी आपने गालियाँ ? इसलिए कि पुस्तक के प्रति आपका राग या ममत्व था अतः उसे फाड़ देने वाले पर आपकी कषाय उमड़ पड़ी।
किन्तु अगर आप पुस्तक के प्रति ममता नहीं रखते तो उसके फट जाने पर आपको दुःख नहीं होता और दुःख न होने पर कषायभाव जागृत नहीं होता। आप यही विचार कर लेते कि संयोग था अतः पुस्तक फट गई, इसमें उस व्यक्ति का क्या दोष ? वह तो एक निमित्त मात्र है ।
। वस्तुतः जो व्यक्ति मन में ऐसा भाव रखते हैं, वे पुस्तक फटने जैसी छोटी बात तो क्या बड़ी से बड़ी घटनाओं के घट जाने पर भी विचलित नहीं होते । यहाँ तक कि किसी प्रिय से प्रिय व्यक्ति के निधन पर भी शोकाकुल नहीं होते वरन् होनहार मानकर समभाव में विचरण करते हैं । इसी को राग का न रहना कहते हैं।
पद्य में विषय-विकारों के त्याग पर भी जोर दिया है। शास्त्रों में बताया गया है कि पंचेन्द्रियों के विषय काम-विकार को बढ़ाने वाले हैं
____ "उक्कामयंति जीवं, धम्माओ तेण ते कामा ।" अर्थात्-शब्द, रूप, रस, गंधादि विषय आत्मा को धर्म से उत्क्रमण करा देते हैं, दूर हटा देते हैं, अतः इन्हें काम कहा है।
वास्तव में ही विकार मानव को अधर्मी और अनाचारी बना देते हैं। इसीलिए बन्धुओ, आप जिस स्थिति में हैं उसमें भी अधिक से अधिक संयमित बनने
का प्रयत्न करें ताकि कर्मों का आगमन कम से कम हो । हमारा धर्म तो बड़ा विशाल प्रत्येक व्यक्ति के लिए गृहणीय है। उदाहरणस्वरूप-साधुओं के लिए अगर महाव्रतों का विधान है तो गृहस्थों के लिए इसमें अणुव्रत बताये गये हैं । सांसारिक मनुष्य अगर इन आंशिक व्रतों का भी पालन करे तो वह देवता से बढ़कर है। गंगा भी सदाचारी की प्रतीक्षा करती है
पौराणिक साहित्य में एक लघु कथा है कि गंगा नदी एक बार स्त्री का साक्षात रूप धारण करके किनारे पर बैठी हुई ऐसी दिखाई दे रही थी, जैसे
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