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________________ २४४ आनन्द प्रवचन : सातवाँ भाग 1 घर में रह इसने घर में आग लगाई । कर आस्रव को..'। मिथ्यात्व - पाश में फँसकर मनुज सयाना, पशुओं से बदतर बना, बना दीवाना जीवन-हित यह सिखलाता विष इसके सेवन से मिला नरक सत् धर्म देव गुरु शरण गहो हे भाई | कर आस्रव को...'। का खाना, परवाना । पद्य में कहा गया है - भगवान ने मिथ्यात्व को सर्वप्रथम आस्रव जो बताया है, वह यथार्थ है । यह ऐसा सेनापति है, जिसके पीछे सारी सेना चलती है । यानी जहाँ मिथ्यात्व हृदय में घर कर जाता है, वहाँ अविरति, प्रमाद एवं कषाय आदि अन्य सभी दुर्गुण स्वयं चले आते हैं जो कि कर्म - बन्धनों के कारण हैं । वस्तुतः मिथ्यात्व सम्यक्ज्ञान को नष्ट कर देता है तथा विवेक को मिट्टी में मिला देता है; और इन दोनों के अभाव में भला धर्म कैसे टिक सकता है ? जिस प्रकार हमारे दो नेत्र हैं और इनकी सहायता से हम शरीर-रूपी गाड़ी को निर्विघ्न आगे धकेलते हैं, इसी प्रकार ज्ञान एवं विवेक रूपी नेत्रों से धर्म की गाड़ी भी आगे की ओर बढ़ती है । साथ ही ध्यान में रखने की बात तो यह है कि शरीर पर रही हुई आँखें अगर अपना काम न करें तो उससे मनुष्य की उतनी हानि नहीं होती, जितनी हानि ज्ञान एवं विवेक रूपी नेत्रों के बन्द हो जाने पर होती है । पाश्चात्य कवि 'मिल्टन' संसार - प्रसिद्ध कवि और साहित्यकार हो चुके हैं । वे प्रज्ञाचक्षु थे क्योंकि शरीर में स्थित आँखों से उन्हें दिखाई नहीं देता था । इस पर भी वे बड़े भारी विद्वान एवं चमत्कारिक बुद्धि के धनी थे । उनके हृदय में अपार उत्साह एवं पूर्ण विश्वास था कि मैं आँखें न होने पर भी साहित्य के भंडार में कुछ न कुछ अवश्य डाल सकूँगा । वैसा ही हुआ भी । अपनी प्रज्ञा के नेत्रों से एवं अन्तर्मानस की चमत्कारिक प्रतिभा से उन्होंने संसार को चकित कर दिया । वह थी ज्ञान की एवं विवेक की शक्ति । शरीर में आँखें न होने पर भी ज्ञान-नेत्रों ने उनके द्वारा महान् काव्यों को संसार के सामने रख दिया और जीवन भर वे साहित्य सृजन करते रहे । मेरे कहने का अभिप्राय यही है कि प्रत्येक मनुष्य के ज्ञान और विवेक रूपी नेत्र खुले होने चाहिए। उन पर मिथ्यात्व का परदा अगर पड़ गया तो Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004010
Book TitleAnand Pravachan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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