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आनन्द प्रवचन : सातवाँ भाग
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घर में रह इसने घर में आग लगाई । कर आस्रव को..'। मिथ्यात्व - पाश में फँसकर मनुज सयाना, पशुओं से बदतर बना, बना दीवाना जीवन-हित यह सिखलाता विष इसके सेवन से मिला नरक सत् धर्म देव गुरु शरण गहो हे भाई | कर आस्रव को...'।
का खाना,
परवाना ।
पद्य में कहा गया है - भगवान ने मिथ्यात्व को सर्वप्रथम आस्रव जो बताया है, वह यथार्थ है । यह ऐसा सेनापति है, जिसके पीछे सारी सेना चलती है । यानी जहाँ मिथ्यात्व हृदय में घर कर जाता है, वहाँ अविरति, प्रमाद एवं कषाय आदि अन्य सभी दुर्गुण स्वयं चले आते हैं जो कि कर्म - बन्धनों के कारण हैं ।
वस्तुतः मिथ्यात्व सम्यक्ज्ञान को नष्ट कर देता है तथा विवेक को मिट्टी में मिला देता है; और इन दोनों के अभाव में भला धर्म कैसे टिक सकता है ? जिस प्रकार हमारे दो नेत्र हैं और इनकी सहायता से हम शरीर-रूपी गाड़ी को निर्विघ्न आगे धकेलते हैं, इसी प्रकार ज्ञान एवं विवेक रूपी नेत्रों से धर्म की गाड़ी भी आगे की ओर बढ़ती है । साथ ही ध्यान में रखने की बात तो यह है कि शरीर पर रही हुई आँखें अगर अपना काम न करें तो उससे मनुष्य की उतनी हानि नहीं होती, जितनी हानि ज्ञान एवं विवेक रूपी नेत्रों के बन्द हो जाने पर होती है ।
पाश्चात्य कवि 'मिल्टन' संसार - प्रसिद्ध कवि और साहित्यकार हो चुके हैं । वे प्रज्ञाचक्षु थे क्योंकि शरीर में स्थित आँखों से उन्हें दिखाई नहीं देता था । इस पर भी वे बड़े भारी विद्वान एवं चमत्कारिक बुद्धि के धनी थे । उनके हृदय में अपार उत्साह एवं पूर्ण विश्वास था कि मैं आँखें न होने पर भी साहित्य के भंडार में कुछ न कुछ अवश्य डाल सकूँगा । वैसा ही हुआ भी । अपनी प्रज्ञा के नेत्रों से एवं अन्तर्मानस की चमत्कारिक प्रतिभा से उन्होंने संसार को चकित कर दिया ।
वह थी ज्ञान की एवं विवेक की शक्ति । शरीर में आँखें न होने पर भी ज्ञान-नेत्रों ने उनके द्वारा महान् काव्यों को संसार के सामने रख दिया और जीवन भर वे साहित्य सृजन करते रहे ।
मेरे कहने का अभिप्राय यही है कि प्रत्येक मनुष्य के ज्ञान और विवेक रूपी नेत्र खुले होने चाहिए। उन पर मिथ्यात्व का परदा अगर पड़ गया तो
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