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हंस का जीवित कारागार
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तब फिर यज्ञ के अधिष्ठाता सोमदेव ब्राह्मण ने अपनी पत्नी भद्रा सहित मुनि से क्षमा याचना की और कहा___"भगवन् ! इन मूढ़ कुमारों ने आपकी जो अवहेलना की तथा कष्ट पहुँचाया, उसके लिए इन्हें क्षमा करें। क्योंकि सन्त तो क्रोधरहित होते हैं।"
सोमदेव ब्राह्मण के यह वचन सुनकर मुनि ने प्रसन्नमुख एवं शान्तभाव से उत्तर दिया-"माई ! मेरे मन में तो किसी के प्रति रंचमात्र भी क्रोध या द्वष नहीं है । यज्ञ मण्डप में आने से पूर्व मेरा जैसा भाव था वैसा ही अब भी है। पर यह सब काण्ड मुझ पर भक्ति रखने वाले यक्ष ने किया है। आखिर वह तो साधु है नहीं जो आप लोगों का उपद्रव सहन कर लेता।" ___मुनि के इन शान्त वचनों को सुनकर सभी ब्राह्मणों की आँखें खुली और वे बोले
अत्थं च धम्म च वियाणमाणा,
__तुम्मे न वि कुप्पह भूइपन्ना। तुभं तु पाए सरणं उवेमो, समागया सव्वजणेण अम्हे ॥
-श्रीउत्तराध्ययन, अ० १२, घा० ३३ अर्थात् ब्राह्मण कहने लगे-“हे भगवन् ! आप अर्थ और धर्म के ज्ञाता हैं, कभी क्रुद्ध न होने वाले हैं, क्योंकि आपकी बुद्धि सदा रक्षा करने वाली है अतः हम सब लोग आपके चरणों की शरण ग्रहण करते हैं।"
बंधुओ, मेरे कहने का तात्पर्य यही है कि अभिमानी का मस्तक अन्त में नीचा अवश्य होता है। उन ब्राह्मणों को अपनी जाति, कुल एवं ज्ञान का बड़ा अहंकार था, किन्तु अन्त में उन्हें निम्न कुलोत्पन्न हरिकेशी मुनि की शरण लेनी पड़ी और उनसे क्षमा याचना करनी पड़ी। जब तक वे गर्व से भरे रहे, तब तक शांति प्राप्त नहीं कर सके और अपने छात्रों की दुर्दशा का कारण बने।
ऐसे उदाहरणों से स्पष्ट होता है कि शास्त्रों में बताये हुए आठों प्रकार के गर्व जहाँ रहते हैं, वहाँ अशुभ ही होता है, शुभ नहीं हो सकता। हमारे आज के विषय में भी यही बताया जाना है कि शरीर की यथार्थ स्थिति को समझकर उसके सौंदर्य का व्यक्ति को गर्व नहीं करना चाहिए। गर्व के आठ प्रकारों में 'रूप' भी एक है। सनत्कुमार चक्रवर्ती को अपने शारीरिक सौन्दर्य का बड़ा भारी गर्व था, किन्तु एक ही रात्रि में उनके शरीर में सोलह महारोगों ने घर कर लिया और पान के थूक में असंख्य कीड़े कुलबुलाते हुए नजर आये ।
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