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गोहं न मे कोई
बन्धुओ ! इन उदाहरणों से मेरा आशय यही है कि उन कवियों ने जो कुछ कहा, उससे एकत्व भावना की पुष्टि हुई । जीव अकेला आया है और अकेला जाएगा, धन उसके साथ जाने वाला नहीं है । साथ में अगर कुछ जाता है तो केवल शुभ और अशुभ कर्म । इसीलिए गंग कवि ने गोविन्द का भजन करने पर जोर दिया है । हम भी यही कहते हैं कि वीतराग प्रभु का चिन्तन करो, साथ ही अपनी समस्त क्रियाओं को निर्दोष अर्थात् धर्ममय बनाओ । मानव अगर अपने आचरण को राग, द्वेष, विकार और कषायादि से रहित कर लेता है तो जीवन स्वयं ही धर्ममय बन जाता है ।
एकत्व भावना कैसे भायी जाये ?
पूज्य श्री त्रिलोक ऋषि जी महाराज ने अपने सुन्दर पद्य के अन्त में कहा है कि नमिराय ऋषि ने जिस प्रकार एकत्व भावना भाई थी, उसी प्रकार अगर प्रत्येक व्यक्ति उसे भाता है तो वह अपनी आत्मा की भलाई कर सकता है । एकत्व भावना ही आत्मा के सच्चे स्वरूप का अनुमान करा सकती है तथा उसके संसार - परिभ्रमण को कम कर सकती है ।
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आप विचार करेंगे कि भावना भाने से ही क्या संसार - परिभ्रमण रुक जाएगा ? नहीं, ऐसा तो नहीं हो सकता, और मैं यह कहता भी नहीं हूँ कि केवल जीव के अकेलेपन का ज्ञान होने से ही आत्म-कल्याण हो जाएगा । मेरे कहने का तात्पर्य यह है कि मनुष्य जैसे विचार बनाता है, या जैसी भावनाएँ रखता है, धीरे-धीरे उनके अनुसार आचरण भी अवश्य करता है । जैसे कोई व्यक्ति झूठ बोलना, हिंसा करना या चोरी करना बुरा समझने लगता है तो निश्चय ही वह इन कार्यों से कतराएगा तथा एकदम नहीं तो शनैः-शनैः इन्हें निश्चय ही छोड़ देगा । जिन कामों को हम अच्छा नहीं समझते और उनसे घृणा करते हैं, तो फिर उन्हें करने की इच्छा भी नहीं होती ।
इसी प्रकार जब मनुष्य यह समझ लेगा कि मेरी आत्मा अकेली आई है, और अकेली ही जाने वाली है तो वह सांसारिक पदार्थों में ममत्व नहीं रखेगा । यहाँ पुनः आप कहेंगे कि यह बात भी सभी जानते हैं, पर फिर भी लोग जीवन भर पाप करते जाते हैं, ऐसा क्यों ? यह बात भी सत्य है । सचमुच ही हर व्यक्ति इतना तो जानता ही है, किन्तु फिर भी पाप करता है । इसका वास्तविक कारण यह है कि आत्मा के एकत्व को प्राणी के जन्म-मरण से प्रत्यक्ष देखकर व्यक्ति समझ लेता है, किन्तु कर्म - बन्धनों को प्रत्यक्ष न देख पाने के कारण उनके अस्तित्व पर शंकाशील रहता है । उसे इस बात पर दृढ़ विश्वास नहीं हो पाता कि हमारी आत्मा पाप कर्मों के कारण अनन्तकाल से चौरासी लाख योनियों
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