________________
प्रज्ञा-परिषह पर विजय कैसे प्राप्त हो ?
इस संसार में प्रायः देखा जाता है कि कुछ व्यक्ति तो कुशाग्र बुद्धि के होते हैं और कुछ मन्द बुद्धि के। बुद्धि की परीक्षा कम उम्र के बालकों की सहज ही हो जाती है। जो छात्र तीव्र बुद्धि के धनी होते हैं वे हर वर्ष अपनी श्रेणी में पास होते जाते हैं और अच्छे अंक लेकर उत्तीर्ण होते हैं । किन्तु जिनकी बुद्धि मन्द होती है, वे परिश्रम करते रहने पर भी एक ही कक्षा में कई वर्ष तक बने रहते हैं । पर ऐसा होना उनका दोष नहीं है यह ज्ञानावरणीय कर्मों का दोष होता है, जिनके क्षय न होने के कारण वे जल्दी विद्या या ज्ञान हासिल नहीं कर पाते।
ऐसी स्थिति में सदा यह विचार करके दुखी होना उचित नहीं कि “मैं मन्द बुद्धि वाला हूँ और मुझे ज्ञान प्राप्त होना संभव नहीं है।"
बुद्धि की तीव्रता के अभाव में चाहे वह छात्र हो या साधक, उसे प्रथम तो यह चाहिए कि वह बिना दुःख और हीन भावनाओं के निरन्तर ज्ञान-प्राप्ति के लिए प्रयत्न करता रहे । ऐसा करने से तथा ज्ञानाभिलाषा के हृदय में सतत् बने रहने से धारे-धीरे उसके ज्ञानावरणीय कर्मों का क्षय होता चला जाएगा और वह ज्ञान का अधिकारी बन सकेगा।
यह आवश्यक नहीं है कि जो व्यक्ति जीवन के प्रारम्भ में अर्थात् बाल्यावस्था में मन्द बुद्धि का होता है वह जीवन के अन्त तक भी वैसा ही बना रहे । प्रयत्न करने पर तो पत्थर पर भी लकीरें बन जाती हैं तो फिर मानव के मस्तिष्क में तो चेतना है तथा उसके हृदय में लगन और ग्राह्य शक्ति बनी रहती है । इसलिए बुद्धि की ओर से निराश हो जाना या अपने आपको सर्वथा हीन समझ लेना उचित नहीं है । प्रत्येक मन्द बुद्धि वाले ज्ञान-पिपासु को यह दोहा कभी नहीं भूलना चाहिए
रसरी आवत जात ते, सिल पर परत निसान ।
करत-करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान । दोहे का अर्थ सरल है और यही है कि जिस प्रकार कुए के पास पड़े हुए पत्थर पर रस्सी के बार-बार आने-जाने से निशान बन जाता है, उसी प्रकार निरन्तर अभ्यास करते रहने से जड़बुद्धि वाला व्यक्ति भी एक दिन महापण्डित बन सकता है। .. तो निरन्तर अभ्यास और उसके साथ-साथ विद्याभिलाषी व्यक्ति को सदा यह ध्यान भी रखना चाहिए कि उसके हृदय में वे अवगुण घर न कर पाएँ जो कि ज्ञान-प्राप्ति में बाधक बनते हैं।
लघर नकर पाएंजा
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org