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प्रज्ञा-परिषह पर विजय कैसे प्राप्त हो ? ७ तो बन्धुओ, ज्ञान का गर्व अज्ञानावस्था है जो कि आत्मा में रहे हुए अनन्त ज्ञान पर परदे के समान आच्छादित रहती है। यहाँ आपको सन्देह होगा कि आत्मा में रहे हुए अनन्तज्ञान को मिथ्याज्ञान या अज्ञान किस प्रकार ढक सकता है ? इसके उत्तर में समझा जा सकता है कि जिस प्रकार समग्र विश्व को प्रकाशित करने वाला सूर्य एक छोटी सी बदली के आ जाने से ही अपने तेज को खो बैठता है तथा हमारी जिन आँखों से संसार की प्रत्येक वस्तु दृष्टिगोचर होती है उस पर मोतियाबिन्द की एक पतली सी झिल्ली चढ़ते ही दिखाई देना बन्द हो जाता है, इसी प्रकार ज्ञान का अनन्त प्रकाश आत्मा में होते हुए भी मिथ्याज्ञान या अज्ञान का परदा पड़ा होने से जीव पाप-पुण्य, बन्ध या मोक्ष किसी के भी बारे में सम्यक् रूप से नहीं जान पाता तथा अपना दुर्लभ जीवन निरर्थक कर देता है। किसी कवि ने अपने एक भजन की कुछ पंक्तियों में कहा भी है
पड़ा परदा जहालत का अक्ल की आँख पर तेरे, सुधा के खेत में तूने जहर का बीज क्यों बोया ?
अरे मतिमन्द अज्ञानी जन्म प्रभू भक्ति बिन खोया ! जहालत यानी अज्ञान दशा ! यह अज्ञानावस्था रूपी परदा जब ज्ञान रूपी नेत्रों पर पड़ा रहता है तो व्यक्ति को आत्मा की भलाई का बोध नहीं होता। इसीलिए कवि प्राणी की भर्त्सना करते हुए कहता है-'अरे मूर्ख ! तूने अमृत के खेत में विष के बीज क्यों वपन कर दिये हैं ? अर्थात् जिस अमूल्य मानवजन्म को पाकर तू सम्यक् साधना के द्वारा सम्पूर्ण कर्मों को नष्ट करके मुक्तिरूपी अमृत को प्राप्त कर सकता था, उसी जीवन में तूने नाना कुकर्म करके दुर्गति रूपी विष-वृक्षों की स्थापना कर ली है और अपना सम्पूर्ण जीवन प्रभु की भक्ति न करके व्यर्थ गँवा दिया है।
कहने का आशय यही है कि मुमुक्षु को सर्वप्रथम तो सम्यक्ज्ञान प्राप्त करना चाहिए । दूसरे, अगर कुछ ज्ञान हासिल हो जाये तो उसके लिए रंचमात्र भी अभिमान का भाव हृदय में नहीं आने देना चाहिए । ज्ञान का अभिमान ऐसा विष है जो कि आत्मोत्थान के मूल को ही नष्ट कर देता है तथा आत्मा को प्रगति के पथ पर नहीं बढ़ने देता। इसीलिए भगवान ने ज्ञान के गर्व को 'प्रज्ञा-परिषह' कहा है और इससे बचने का आदेश दिया है।
संसार में आज तक जितने भी महापुरुष हुए हैं वे अपनी निरभिमानता के कारण ही जीवन को सफल बना सके हैं । ईश्वरचन्द्र विद्यासागर बड़े प्रतिभा
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