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________________ १७८ आनन्द प्रवचन : सातवाँ भाग करते ? क्यों जान-बूझकर इस लालसा रूपी गड्ढे में दिन-प्रतिदिन ही क्या जीवनभर ही गहरे उतरते चले जाते हैं ? --- आप पुनः कहेंगे — हम यह भी भली-भाँति जानते हैं कि एक दिन इस शरीर को छोड़ना है । पर इस जानकारी को ही क्या जानकारी कहते हैं ? अगर ऐसा है तो फिर इस शरीर से तपस्या एवं साधना करके अपने कुछ कर्मों का क्षय क्यों नहीं करते ? परिषहों को समभावपूर्वक सहकर संवर के मार्ग पर क्यों नहीं बढ़ते ? मैं तो अनुभव करता हूँ कि शरीर की अनित्यता को जानते हुए भी आप प्रातःकाल एक नमोक्कारसी भी नहीं करते । ऐसा क्यों ? इसीलिए कि, मात्र चालीस मिनिट का खान-पान छोड़ देने से आपके शरीर को कष्ट होता है । पर अस्थिर और अनित्य शरीर की फिर इतनी फिक्र क्यों ? इससे तो बहुत अधिक काम लेना चाहिए, जिससे आत्मा का भला हो सके जो नित्य या शाश्वत है | · मैं इसीलिए कहता हूँ कि महापुरुषों को ही संसार की अनित्यता का वास्तविक ज्ञान होता है । ऐसा ज्ञान होने पर फिर वे तन या धन में ममत्व रख ही नहीं सकते । अन्यथा ज्ञान का होना न होना बराबर है । आपको भी ऐसा ही ज्ञान हासिल करके धन का तथा तन का सदुपयोग करना चाहिए और इनसे अधिकाधिक लाभ आत्मा को कर्मों से अनावरण करने में लेना चाहिए । श्री त्रिलोक ऋषिजी महाराज ने अपने पद्य में तन और धन के पश्चात् परिवार को भी अनित्यता बताई है । लोग सोचते हैं- “मेरे माता-पिता, भाईबहन, पुत्र-पौत्र, मित्र या चिरसंगिनि पत्नी है, फिर और क्या चाहिए ? पर कवि बाजिंद कहते हैं Jain Education International नहि है तेरा कोय नहीं तू कोय का, स्वारथ का संसार बना दिन दोय का । मेरे-मेरे मान फिरत अभिमान में, इतराते नर मूढ़ एहि अज्ञान में । कवि का कहना यही है कि संसार के सभी सगे-सम्बन्धी स्वार्थ से नाता रखते हैं, तुझसे नहीं; इसलिए न तेरा कोई है और न तू किसी का । माता-पिता अपने बेटे को सपूत तब कहते हैं जब वह उनकी सेवा चाकरी करता है और पत्नी तभी प्रसन्न रहती है जब पति खूब कमा कर उसका भली-भाँति पालनपोषण करता है तथा वस्त्राभूषण बनवाता है । अगर व्यक्ति किसी कारण से धन प्राप्ति नहीं कर पाता तो माता-पिता और पत्नी भी क्षणभर में उसे निखट्ट ू कहकर भर्त्सना करने से नहीं चूकते। ऐसा ही सभी सम्बन्धियों के लिए For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004010
Book TitleAnand Pravachan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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