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आनन्द प्रवचन : सातवाँ भाग
पादित किये गये इन बाईस परिषहों को भली-भाँति जानकर साधु कहीं भी और किसी प्रकार से भी इनके उदय में आने पर पतित न हो।
गाथा के अन्त में एक और ध्यान देने योग्य बात है । वह यह कि इसके अन्त में 'त्ति बेमि' शब्द है । इसका अर्थ है-'इस प्रकार मैं कहता हूँ।' आपको जानने की उत्सुकता होगी कि यहाँ कौन किससे कह रहा है ? इस विषय में भी मैं आपको प्रसंग-वश संक्षिप्त रूप से बताता हूँ। ____ अभी गाथा में आया है कि इन बाईस परिषहों का प्रतिपादन भगवान महावीर ने किया है। भगवान की वाणी को श्री सुधर्मा स्वामी ने सुना था और उन्होंने भगवान के उपदेश को ज्यों का त्यों अपने शिष्य जम्बू स्वामी को बताया । पर साथ ही 'त्ति बेमि' भी कहा । इस कथन से उनका आशय यह था, यानी उन्होंने कहा-“हे शिष्य ! जैसा मैंने भगवान से सुना, वैसा ही तेरे सम्मुख कथन करता हूँ। इसमें मेरी अपनी बुद्धि नहीं है । यानी मैंने अपनी स्वयं की कल्पना से कुछ नहीं कहा है ।"
विचारणीय बात है कि भव्य आत्माओं में कितनी सहजता, सरलता और अपनी प्रशंसा करके यश-प्राप्ति की कामना को अभाव है। आज के लेखक और कवि तो जो लिखते हैं वह कुछ कहीं से और कुछ कहीं से, यानी किसी का कुछ और किसी का कुछ ले-लिवाकर ऊपर स्पष्ट शब्दों में अपना नाम छपवा देते हैं । अनेक बार तो देखा जाता है कि पूरी की पूरी रचनाएँ ही लोग अपना नाम देकर छपवा डालते हैं । यह चौर्य-कर्म वे अपना नाम करके प्रसिद्धि पाने के लिए करते हैं, पर वे भूल जाते हैं कि इस कार्य के परिणामस्वरूप उन्हें बाद में कर्मों से जूझना पड़ेगा। इससे अच्छा यही है कि वे अपनी बुद्धि और ज्ञान के अनुसार ही पूर्ण सरलता रखते हुए जितना उनके पास है, उतना ही लोगों के समक्ष रखें।
सरलता के विषय में उत्तराध्ययनसूत्र के उन्तीसवें अध्याय में कहा गया है
"अज्जवयाए णं काउज्जुययं भावुज्जुययं भासुज्जुययं अविसंवायणं जणयई । अविसंवायणसंपन्नयाए णं जीवे धम्मस आराहए भवइ ।"
अज्जव यानी आर्जव, ऋजुता या सरलता। कहा है-ऋजुता से जीव काया यानी शरीर की सरलता, भाव यानी मन के विचारों की सरलता, भाषा की सरलता तथा अविसंवाद अर्थात् प्रामाणिकता को प्राप्त करता है और अविसंवाद से सम्पन्न होने पर धर्म का सच्चा आराधक बनता है ।
तो मैं आपको यह बता रहा था कि सुधर्मास्वामी निश्छल भाव से कहते
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