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आनन्द प्रवचन : सातवाँ भाग
शास्त्रों में कहा गया है :
अत्थि सत्थं परेण परं, नत्थि असत्यं परेण परं ।
--आचारांगसूत्र ११३|४ अर्थात् —-शस्त्र ( हिंसा) एक से एक बढ़कर हैं, किन्तु अनस्त्र (अहिंसा) एक से एक बढ़कर नहीं हैं । अर्थात् अहिंसा से बढ़कर कोई शस्त्र नहीं है । मेरे कहने का अभिप्राय यही है कि आप लोग संगठन के जिस उच्च उद्देश्य को लेकर यह अधिवेशन करने जा रहे हैं, उसके पीछे आपकी भावना निःस्वार्थ एवं यशप्राप्ति की कामना से रहित होगी तो आपका उद्देश्य अवश्य सफल होगा । क्योंकि काम करने के पीछे अगर किसी प्रकार का स्वार्थ हो, प्रसिद्धि की कामना हो या उच्च पद की लालसा हो तो भावनाएँ पवित्र नहीं रहतीं तथा उनके साथ किया हुआ परिश्रम भी अपना सुफल प्रदान नहीं करता । पर इसके विपरीत अगर शुद्ध भावनाओं के साथ धर्म की सहायता से जो प्रयत्न किया जाता है, वह निश्चय ही फल- प्रद बनता है ।
मैं आशा करता हूँ कि आप संगठन के लिए तथा समाज की बिखरी हुई शक्तियों को एकत्रित करने के लिए जो प्रयत्न करने जा रहे हैं, उसमें समाज
बाह्य तथा आंतरिक, दोनों ही स्थितियाँ सुधर सकेंगी, साथ ही आपको आत्मिक - सन्तोष का लाभ हासिल होगा । क्योंकि इस संसार में सुखी कम हैं और दुःखी अधिक । अतः दुखियों का दुःख मिटाने से आंतरिक खुशी हासिल होती है ।
उर्दू कवि जौक ने भी कहा है
राहतो रंज जमाने में हैं दोनों, लेकिन
याँ अगर एक को राहत है तो है चार को रंज । वस्तुतः इस संसार में सुख और दुःख दोनों ही हैं, पर अधिकता ही है, क्योंकि चार दुखियों पर मुश्किल से एक सुखी मिलता है । अन्त में, मैं एक बार पुनः आपके अधिवेशन एवं संगठन के प्रयत्नों की सराहना करता हुआ इनकी सफलता के लिए शुभकामना करता हूँ तथा आशा ही नहीं अपितु विश्वास रखता हूँ कि आप लोगों के प्रयास का फल आपको अवश्य मिलेगा । भले ही वह तुरन्त न मिल पाए, किन्तु धीरे-धीरे उसका परिणाम अवश्य निकलेगा । आपको भी धैर्य और लगन के साथ कार्य करते जाना चाहिए ताकि हमारा समाज एवं धर्म दोनों ही अपने गौरव को प्राप्त
कर सके ।
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दुःख
की
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