SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 163
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १५० आनन्द प्रवचन : सातवाँ भाग कितनी मर्मस्पर्शी सीख है ? कवि कहता है- "हे बादल ! जहाँ असह्य गर्मी है और चातक के नन्हें-नन्हें बच्चे बहुत दिनों से प्यासे हैं, वहाँ तुरन्त जल प्रदान करो । अन्यथा अगर तेज हवा चलनी प्रारम्भ हो जाएगी तो फिर कहाँ तुम होंगे ? कहाँ पानी रहेगा और कहाँ ये चातक रह जाएँगे ? - बंधुओ, इस यथार्थ उक्ति से आप सभी को निश्चय रूप से जान लेना चाहिए कि धनिकों का धन बादलों में भरे हुए जल के समान ही होता है और अगर समय पर इसका सदुपयोग न किया जाय तो निरर्थक चला जाता है। खेती सूख जाने पर वर्षा का क्या उपयोग है ? का वर्षा जब कृषि सुखानी ? इस बात को हमें गंभीरतापूर्वक समझना चाहिए कि धनाढ्य व्यक्ति बादल के समान हैं, धन जल के समान और मारुत अर्थात् पवन मृत्यु रूपी झौंके के समान । इस प्रकार धनाढ्य व्यक्ति अगर जरूरत के समय अपना जल रूपी धन चातक रूपी अभावग्रस्त प्राणियों के लिए काम में नहीं लेंगे तो न जाने किस समय पवन रूपी काल आकर उन्हें इस लोक से हटाकर ले जाएगा और परिणाम यही होगा कि दुःखी और अनाथ व्यक्ति कहीं रह जाएँगे, धन न जाने किसके हाथ जा पड़ेगा और स्वयं भी कौन जाने किस सुदूर की ओर प्रयाण कर जाएँगे । अतः यही सर्वोत्तम है कि समय रहते, काल रूपी पवन के आने से पहले ही चातक के समान पिपासाकुल यानी दीन-दरिद्रों की कष्ट एवं दुःख रूपी पिपासा को मिटा दिया जाय । पर कितने लोग ऐसे हैं जो जीवन की क्षणभंगुरता को समझ कर अपने मन, वचन, शरीर एवं धन का अपने जीवन-काल में ही सदुपयोग करके उससे लाभ उठाते हैं ? बहुत ही थोड़े। अधिकांश व्यक्ति तो चाँदी-सोने की चमक के सामने अपनी आत्मा की चमक का ख्याल ही नहीं करते। फल यही होता है वे सोना-चाँदी, जमीन-मकान आदि की वृद्धि में लगे रहकर आत्म-कल्याण को भविष्य के लिए स्थगित कर देते हैं, और इसी बीच काल आकर उन्हें स्थानांतरित कर देता है। कवि श्री 'भारिल्ल' जी ने भी अपनी अनित्य-भावना में मानव की तृष्णा, आसक्ति और मूर्खता देखते हुए लिखा है अमर मानकर निज जीवन को परभव हाय भुलाया, चाँदी-सोने के टुकड़ों में फूला नहीं समाया। देख मूढ़ता यह मानव की उधर काल मुस्काया, अगले पल ले चला यहाँ पर नाम निशान न पाया । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004010
Book TitleAnand Pravachan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy