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आनन्द प्रवचन : सातवाँ भाग
शास्त्रों में भी सच्चे साधु के लक्षण बताते हुए केवल यही कहा हैइह लोगणिरावेक्खो,
अप्पडिबद्धो परम्मि लोयम्हि । जुत्ताहार विहारो, रहिदकसाओ हवे समणो ॥
-प्रवचनसार, ३-२६ अर्थात्-जो इस लोक में निरपेक्ष है, परलोक में भी अप्रतिबद्ध यानी अनासक्त है, विवेकपूर्वक आहार-विहार की चर्या रखता है तथा कषाय रहित है, वही सच्चा श्रमण है।
तात्पर्य यही है कि धर्म जाति पर आधारित नहीं है, अपितु कर्म पर है । अगर व्यक्ति निम्न कुल में जन्म लेकर उत्तम कार्य करता है तो कोई कारण नहीं है कि उसे उच्च कुल में जन्म लेने वाले की अपेक्षा नीचा समझा जाय । बल्कि निम्न कुल में जन्म लेकर उच्च कार्य करने वाले की अपेक्षा उच्च कुल में जन्म लेकर निकृष्ट कर्म करने वाला ही हीन समझा जाना चाहिए। इस प्रकार भगवान महावीर ने पच्चीस सौ वर्ष पूर्व ही अछूओं को अछूत या निम्न कुल में जन्म लेने वाले को सदा निम्न ही न समझने वाला कानून बना दिया था। उन्होंने स्पष्ट कहा है
कम्मुणा बंभणो होइ, कम्मुणा होइ खत्तिओ।
कम्मुणा वइसो होइ, सुद्दो होइ कम्मुणा ॥ अर्थात्-- व्यक्ति जन्म से ही नहीं वरन् अपने कार्यों से ही ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र होता है ।
स्पष्ट है कि धर्म के उदार क्षेत्र में व्यक्ति-व्यक्ति में किसी भी प्रकार का भेदभाव नहीं होता । जिस प्रकार समस्त नदियाँ सागर में मिलकर समान हो जाती हैं, उसी प्रकार प्रत्येक जाति, कुल या गोत्र का व्यक्ति धर्म के पवित्र प्रांगण में प्रवेश करके समान धर्म का अधिकारी बन जाता है। धर्म ही मनुष्यमनुष्य के बीच समत्वभाव की स्थापना करता है। इसीलिए धर्म का मर्म समझने वाले महापुरुष भगवान महावीर के पश्चात् भी सदा यही प्रयत्न करते आये हैं कि प्रत्येक मानव दूसरे मानव को पूर्णतया अपने समान समझे । आज के युग में गाँधीजी भी अपने जीवनकाल में यही कहते और मानते रहे हैं । वे सदा ही हरिजनोद्धार के प्रयत्न में लगे रहे।
मेरे कहने का तात्पर्य यही है कि राज्य-शासन और धर्म अलग-अलग नहीं अपितु एक ही हैं । धर्म के आधार पर ही राज्य के कानून बनते हैं और तभी
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