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________________ १३० आनन्द प्रवचन : सातवाँ भाग दूसरा कारण बताया गया है -वस्तु का अत्यधिक समीप होने के कारण भी उसका दिखाई न देना । इसका अनुभव भी आप सहज ही कर सकते हैं जैसे-अपनी ही आँखों का न दिखना या उसमें डाले हुए अंजन का दिखाई न देना । आप कहेंगे 'दर्पण में हम अपनी आँखें देख सकते हैं तथा सुरमा या काजल भी दिखाई देता है।' पर दर्पण तो दूर ही हआ न ! मैं अति सानिध्य की बात श्लोक के अनुसार कह रहा हूँ। दर्पण की अपेक्षा अधिक समीप तो आपकी अपनी आँखें और उसमें डाला हुआ अंजन होता है, इसीलिए आप उसे नहीं देख सकते । तीसरा कारण इन्द्रियाघात बताया गया है । यथा-एक व्यक्ति अन्धा है और उसे इस संसार की कोई भी वस्तु दिखाई नहीं देती। वह आपको या हमको भी नहीं देख पाता, तो क्या आप और हम नहीं हैं ? हैं तो निश्चय ही, पर अपनी चक्षु इन्द्रिय में खराबी या दृष्टि न होने के कारण वह हमें नहीं देख सकता । इसी प्रकार बहरा व्यक्ति हमारी और आपकी बात को या कर्णप्रिय मधुर गीतों को भी नहीं सुनता । किन्तु इसके कारण यह नहीं कहा जा सकता कि शब्द कोई चीज ही नहीं हैं । कारण उसके न सुन पाने का श्रोत्रेन्द्रिय की खराबी है। अब चौथा कारण आता है मन की चंचलता या उसकी उपेक्षा का । अगर मन चंचल होता है तो आप सामने रखी हुई वस्तु को भी ठोकर मारकर तेजी से चले जाते हैं । ऐसा क्यों ? इसलिए कि आपका मन अपने गन्तव्य पर पहुंचने के लिए व्यग्र होता है तथा मन उसी ओर लगा रहता है। इसके अलावा व्यक्ति अन्यमनस्कता के कारण भी सामने पड़ी हुई चीजों को या सामने बैठे हुए व्यक्तियों को नहीं देख पाता । हमें स्वयं भी इसका अनुभव है कि मन की स्थिति ठीक न होने पर यह मालूम होते हुए भी कि अमुक पृष्ठ पर अमुक श्लोक है, हमें वह नहीं मिलता । पर श्लोक वहाँ है ही नहीं क्या यह संभव हो सकता है ? नहीं। श्लोक के न मिलने का कारण हमारे मन की खराब स्थिति होती है, श्लोक का न होना नहीं। ___इसलिए परलोक दिखाई न देने पर भी वह नहीं है, ऐसा कहना अनुचित है । अनन्त ज्ञानी तीर्थंकरों ने जो कुछ कहा है वह यथार्थ है ऐसी श्रद्धा हमारे मन में होनी चाहिए। सच्ची गवाही किसकी ? आप लोग प्रायः कचहरी-अदालतों में जाते हैं और वहाँ पर प्रत्येक मामले में गवाही देते हुए लोगों को देखते हैं । भला बताइये कि गवाहों की वहाँ क्या Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004010
Book TitleAnand Pravachan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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