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________________ अपराधी को अल्पकाल के लिए भी छुटकारा नहीं होता भी बदल डाला तथा किये हुए पापों के लिए घोर पश्चात्ताप करते हुए तप एवं त्यागमय जीवन व्यतीत करना प्रारम्भ कर दिया । बन्धुओं, मेरे कहने का अभिप्राय यही है कि जो व्यक्ति अपने जीवन में कुकृत्य नहीं करते तथा पाप की छाया भी न पड़ जाय इस डर से अपने मन, वचन एवं शरीर को पूर्णरूप से अपने काबू में रखते हुए देव, गुरु एवं धर्म पर श्रद्धा रखते हैं, वे परलोक से निर्भय रहते हुए वीतराग के वचनों का स्पष्ट एवं सत्य रूप से स्वयं तो पालन करते हैं, साथ ही औरों के समक्ष भी निडरता पूर्वक यथार्थ को प्रगट कर देते हैं । ऐसे साधु-पुरुष किसी से डरते नहीं और सत्य को प्रकट करने के लिए किसी का लिहाज भी नहीं करते । चाहे उनके सामने रंक हो या राजा । ११७ केशी श्रमण भी चार ज्ञान के धारक एवं संयमनिष्ठ साधक थे । अतः उन्होंने राजा प्रदेशी को बोध देने के लिए उनकी रानी सूर्यकान्ता का उदाहरण देते हुए निर्भयतापूर्वक कहा— " राजन् ! अगर किसी व्यभिचारी व्यक्ति को तुम अपनी पटरानी के साथ कुशील सेवन करते हुए देख लो तो क्या करोगे ?” राजा संत की यह बात सुनकर एकदम चौंक पड़ा । क्या किसी देश के राजा से इस प्रकार की बात कहने का साधारण व्यक्ति में साहस हो सकता है ? नहीं, राजा के सामने इस प्रकार की बात कहना तो दूर, पूरी होने से पहले ही संभवतः उसका सिर धड़ से अलग कर दिया जाता। पर, साधु को किसका डर ? उन्हें प्रदेशी को समझाने के लिए इस प्रकार का उदाहरण देना आवश्यक था अत: उन्होंने दिया और राजा ने संत से प्रभावित होते हुए यही उत्तर दिया "महाराज, उस व्यक्ति का और क्या किया जाएगा ? उसे तो क्षणमात्र IT भी विलम्ब किये बिना मौत के घाट उतारा जाएगा ।" "पर भाई ! अगर वह व्यभिचारी व्यक्ति तुमसे प्रार्थना करता हुआ कहे'महाराज ! मैं अपराधी हूँ और अपना अपराध स्वीकार करते हुए उसके लिए सजा भोगने को तैयार हूँ । किन्तु आप मुझे एक बार छोड़ दीजिए ताकि मैं अपने सगे-सम्बन्धियों को सावधान करते हुए कह आऊँ कि तुम लोग मेरे जैसा दुष्कर्म मत करना क्योंकि इसी के कारण मेरी फजीहत हुई है और इसका मुझे दंड भोगना पड़ेगा ।' तो क्या तुम उस नीच व्यक्ति को कुछ समय के लिए छोड़ दोगे ?" Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004010
Book TitleAnand Pravachan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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