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________________ आध्यात्मिक दशहरा मनाओ ! ८७ जाति की भीलनी और ऊपर से इसके जूठे बेर आप निस्संकोच खाये जा रहे हैं ?" राम शांतिपूर्वक बोले-“लक्ष्मण ! माता कौशल्या के खिलाये हुए पकवानों से भी अधिक स्वादिष्ट आज मुझे ये बेर लग रहे हैं। क्या तुम देख नहीं रहे हो इसकी अनन्य भक्ति और प्रेम को ? इस अनुपम स्नेह के सामने जाति और कुल क्या चीज है ?" उधर बड़े-बड़े सभी ऋषि-मुनि भी मुँहबाये यह दृश्य देख रहे थे और भीलनी के भाग्य की सराहना कर रहे थे । किसी भक्त ने ठीक ही कहा है : कुल रो कारण संतां ! है नहीं सुमरे ज्याँरा है सांईं। सहस अठोत्तर मुनि तप तपे एकज वन रे मांही, ज्याँ बिच तपे एक भीलनी तारौं अन्तर नांहीं। कुल रो कारण संतां ! है नहीं....." वस्तुतः भगवान की भक्ति में जाति या कुल कभी बाधक नहीं बनते । आवश्यकता है एकनिष्ठ भक्ति अथवा साधना की। मुनि हरिकेशी चांडाल कुल में उत्पन्न हुए थे, किन्तु उनकी दृढ़ साधना एवं घोर तप ने उन्हें कर्मबन्धनों से मुक्त कर दिया । उसमें कुल और जाति कहाँ बाधा डाल सकी ? कहीं नहीं, वह इसीलिए कि आत्मा की कोई जाति और कुल नहीं है। अगर वह कर्मों से जकड़ जाय तो निकृष्टता को प्राप्त होती है और कर्मों से मुक्त होने पर उत्कृष्ट अवस्था में पहुँच जाती है । तो बंधुओ, मैं आपको बता तो यह रहा था कि दसलक्षणरूपी दशरथ के प्रथम पुत्र धर्मरूप राम और द्वितीय पुत्र सत्यरूपी लक्ष्मण थे। दोनों अपने नामों के सर्वथा अनुरूप भी थे यह मैंने रामायण में दिये हुए निषादों के राजा गुह और शबरी भीलनी के प्रसंगों द्वारा बताया है। धर्म शांत, समत्वपूर्ण, सहानुभूतिमय एवं सबको लेकर चलता है, अतः राम ऐसे ही थे तथा सत्य शुद्ध होते हुए भी तनिक कटु और कठोर होता है, जैसे कि लक्ष्मण थे। . ध्यान में रखने की बात है कि धर्म और सत्य कभी एक-दूसरे के अभाव में नहीं रह सकते, जैसे राम और लक्ष्मण कभी अलग नहीं रहे। राम वन गए तो लक्ष्मण भी उनके साथ छाया की भाँति बने रहे। 'धर्मरूपी राम का विवाह सुमतिरूपी सीता के साथ बड़े ठाट-बाट से हुआ था और उसके पश्चात् राज्याभिषेक का समय आया। किन्तु 'करमगति टारी नांहि टरे'। इस उक्ति के अनुसार ठीक राज्याभिषेक के समय ही कैकयी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004010
Book TitleAnand Pravachan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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