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सम्पादकीय
बन्धुओ !
आज आपके समक्ष 'आनन्द-प्रवचन' का छठा पुष्प सम्पादित करके पहुँचाने में मुझे अतीव हर्ष का अनुभव हो रहा है । इसके पूर्व पाँच पुष्प आपके कर-कमलों तक पहुँच चुके हैं और आप सबने उनके सौरभ एवं माधुर्य की भूरि-भूरि सराहना की है, इससे मेरा उत्साह बढ़ता रहा है एवं मुझे आन्तरिक संतुष्टि का अनुभव हुआ है।
स्वनाम धन्य आचार्य प्रवर श्री आनन्दऋषि जी म. के प्रवचनों की महत्ता एवं उपयोगिता के विषय में अधिक कहने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि आपके सन्मुख पाँच भागों में वे संग्रह के रूप में आ चुके हैं । अतः 'हाथ कंगन को आरसी क्या ?' यह कहावत यहाँ चरितार्थ हो जाती है ।
संक्षेप में यही कहना काफी है कि जीवन में निकट संघर्ष की घड़ियों से किस प्रकार जूझा जाय ? सांसारिक एवं आध्यात्मिक समस्याओं को किस प्रकार सुलझाया जाय ? किस तरीके से आत्मा को कर्म-मुक्त करते हुए साधना-पथ पर बढ़ा जाय और किस प्रकार जीव एवं जगत के रहस्यों से अवगत होते हुए संवरधर्म की आराधना की जाय ? इन सभी प्रश्नों का समाधान आचार्य श्री के प्रवचनों में मिलता है ।
प्रस्तुत संग्रह में संकलित प्रवचन संवर तत्व के सत्तावन भेदों में से पूर्व के कुछ भेदों पर प्रकाश डालते हैं । इन भेदों को क्रमशः लिया गया है और बड़े ही सुन्दर एवं सरल ढंग से श्रोताओं के समक्ष रखा गया है। साथ ही सुदूरवर्ती श्रद्धालु पाठक भी इनसे लाभ उठाते हुए अपने जीवन को उन्नत बना सकें, यही इनके संग्रहित रूप में प्रकाशित किये जाने का उद्देश्य है।
आशा ही नहीं, अपितु विश्वास है कि पाठक इस उद्देश्य को पूर्ण करेंगे तथा इन मार्मिक प्रवचनों के द्वारा इहलौकिक सफलता की प्राप्ति के साथ-साथ आत्मा के शाश्वत कल्याण के प्रयत्न में भी जुट जाएंगे। इन्हीं प्रवचनों के माध्यम से वे आत्मिक गुणों को अंकुरित करते हुए अपने मानस को विशुद्ध एवं परिष्कृत बनायेंगे तथा
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